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________________ 116 गणधरवाद कराने वाला आत्मा में कोई तत्त्व अवश्य है जिसके आधार पर नैयायिकों ने उसे चेतन माना है । उस तत्त्व का नाम चैतन्य है । आत्मा को चेतन मानने के विषय में उनका किसी भी दार्शनिक से मतभेद ही नहीं है, केवल उनकी ज्ञान की परिभाषा अलग है, अतः उन्होंने ज्ञान शब्द से चंतन्य का बोध कराना उचित नहीं समझा । वेदान्ती जब अधिक सूक्ष्म विचार करने लगे तब वे 'चैतन्य' को चैतन्य शब्द से प्रतिपादित करने के लिए उद्यत न हुए और 'नेति नेति' कह कर उसका वर्णन करने लगे। यह बात लिखी जा चुकी है कि अन्य दार्शनिकों ने भी ऐसा ही किया। भाषा की शक्ति इतनी सीमित है कि वह परम तत्त्व के स्वरूप का यथार्थ वर्णन कर ही नहीं सकती, क्योंकि विचारकों ने उन भिन्न-भिन्न शब्दों की परिभाषा अनेक प्रकार से की है, अतः उन-उन शब्दों का प्रयोग करने से वस्तु का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता । इसके विपरीत कई बार अधिक उलझनें पैदा हो जाती हैं। मुक्तात्मा में शक्ति को पृथक् रूप से स्वीकार करने पर यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि शक्ति, क्या है ? इस पर विचार करते हुए प्राचार्यों ने कह दिया कि, शक्ति के अभाव में अनन्त ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती, अतः ज्ञान में ही उसका समावेश कर लेना चाहिए । (उ) मुक्ति-स्थान जो दर्शन प्रात्मा को व्यापक मानते हैं, उनके मत में मुक्ति-स्थान की कल्पना अनावश्यक थी । प्रात्मा जहाँ है, वहीं है, केवल उसका मल दूर हो जाता है । उसे अन्यत्र जाने की अावश्यकता नहीं है । फिर प्रश्न यह है कि, जब वह सर्व व्यापक है तब उसका गमन कहाँ हो ? किन्तु जैनदर्शन, बौद्धदर्शन और जीवात्मा को अणुरूप मानने वाले भक्तिमार्गी वेदान्त-दर्शन के सम्मुख मुक्ति स्थान विषयक समस्या का उपस्थित होना स्वाभाविक था। जैनों ने यह बात मानी है कि, ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग में मुक्तात्मा का गमन होता है और सिद्ध शिला नामक भाग में हमेशा के लिए उसकी अवस्थिति रहती है। भक्तिमार्गी वेदान्ती मानते हैं कि, विष्णु भगवान् के विष्णुलोक में जो ऊर्ध्वलोक है, वहाँ मुक्त जीवात्मा का गमन होता है और उसे परब्रह्मरूप भगवान् विष्णु का हमेशा के लिए सान्निध्य प्राप्त होता है । बौद्धों ने इस प्रश्न का निराकरण दूसरे प्रकार से किया है। उनके मत में जीव या पुद्गल कोई शाश्वत द्रव्य नहीं है, अत: वे पुनर्जन्म के समय एक जीव का अन्यत्र गमन नहीं मानते, किन्तु वे एक स्थान में एक चित्त का निरोध और उसकी अपेक्षा से अन्यत्र नए चित्त की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि, इसी सिद्धान्त के अनुरूप मुक्त चित्त के विषय में भी सिद्धान्त निश्चित किया जाय। राजा मिलिन्द ने आचार्य नागसेन से पूछा कि, पूर्वादि दिशाओं में ऐसा कौनसा स्थान है जिसके निकट निर्वाण की स्थिति है ? आचार्य ने उत्तर दिया कि, निर्वाण-स्थान कहीं किसी दिशा में अवस्थित नहीं है जहाँ जा कर मुक्तात्मा निवास करे । तो फिर निर्वाण कहाँ प्राप्त होता है ? जिस प्रकार समुद्र में रत्न, फूल में गंध, खेत में धान्य प्रादि का स्थान नियत है, उसी 1. सर्वार्थसिद्धि 10.4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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