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प्रस्तावना
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प्रकार निर्वाण का भी कोई निश्चित स्थान होना चाहिए। यदि उसका कोई ऐसा स्थान नहीं है, तो फिर यह क्यों नहीं कहते कि, निर्वाण भी नहीं है ? इस पाक्षेप का उत्तर देते हुए नागसेन ने कहा कि, निर्वाण का कोई नियत स्थान न होने पर भी उसकी सत्ता है। निर्वाण कहीं बाहर नहीं है, अपने विशुद्ध मन से इसका साक्षात्कार करना पड़ता है । यदि कोई यह प्रश्न करे कि, जलने से पहले अग्नि कहाँ है ? तो उसे अग्नि का स्थान नहीं बताया जा सकता, किन्तु जब दो लकड़ियां मिलती हैं तब अग्नि प्रकट होती है। उसी प्रकार विशुद्ध मन से निर्वाण का साक्षात्कार हो सकता है, किन्तु उसका स्थान बताना शक्य नहीं है। यदि यह मान भी लिया जाए कि, निर्वाण का नियत स्थान नहीं है तो भी ऐसा कोई निश्चित स्थान अवश्य होना चाहिए जहाँ अवस्थित रह कर पुदगल निर्वाण का साक्षात्कार कर सके । इस प्रश्न के उत्तर में नागसेन ने कहा कि, पद्गल शील में प्रतिष्ठित होकर किसी भी प्राकाश प्रदेश में रहते हुए निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है। (ऊ) जीवन्मुक्ति-विदेहमुक्ति :
__अात्मा से मोह दूर हो जाए और वह वीतराग बन जाए तब शरीर तत्काल अलग हो जाता है अथवा नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर के फलस्वरूप मुक्ति की कल्पना दो प्रकार से की गई—जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति । राग-द्वेष का अभाव हो जाने पर भी जब तक आयुकर्म का विपाक-फल पूर्ण न हुआ हो तब तक जीव शरीर में रहता है अथवा उसके साथ शरीर सम्बद्ध रहता है। किन्तु संसार या पुनर्जन्म के कारणभूत अविद्या और राग-द्वेष के नष्ट हो जाने पर आत्मा में नये शरीर को ग्रहण करने की शक्ति नहीं रहती, अतः ऐसी आत्मा का प्राणधारणरूप जीवन जारी रहने पर भी वह मोह, राग, द्वेष से मुक्त होने के कारण 'जीवन्मुक्त' कहलाती है । जब उसका शरीर भी पृथक् हो जाता है तब उसे 'विदेहमुक्त' अथवा केवल 'मुक्त' कहते हैं।
विद्वानों की मान्यता है कि, उपनिषदों में जीवन्मुक्ति के उपरान्त क्रममुक्ति का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया गया है । इस बात का दृष्टान्त कठोपनिषद से दिया जाता है। उसमें लिखा है कि, उत्तरोत्तर उन्नतलोक में प्रात्म-प्रत्यक्ष क्रमश: विशद और विशदतर होता जाता है । इससे ज्ञात होता है कि इस उपनिषद् में क्रममुक्ति का उल्लेख है-अर्थात् आत्म-साक्षात्कार क्रमिक होता है। दूसरे दर्शनों में मान्य आत्म-विकास के क्रम की इससे तुलना की जा सकती है । जैनों ने उसे गुणस्थान-क्रमारोह कहा है और बौद्धों ने उसे योगचर्या की भूमि का नाम दिया है । वैदिक-दर्शन में इसी वस्तु को 'भूमिका' कहा गया है ।
__ उपनिषदों में जीवन्मुक्ति का सिद्धान्त भी उपलब्ध होता है । इसी कठोपनिषद् में आगे जाकर लिखा है कि, जब मनुष्य के हृदय में रही हुई सभी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं तब वह अमर बन जाता है और यहीं ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है । जब यहाँ हृदय की सभी गाँठे टूट जाती हैं तब मनुष्य अमर हो जाता है ।
1. मिलिन्दप्रश्न 4.8.92-94 2. कठ० 2.3.5 3. कठ• 2.3. 14-15; मुण्डक० 3.2.6; बृहदा० 4.4.6-7
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