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प्रस्तावना
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में भी द्रष्टा-पुरुष और दृश्य-प्रकृति का संयोग अनादिकालीन है, उसे ही बन्ध समझना चाहिए।
बौद्ध दर्शन में नाम और रूप का अनादि सम्बन्ध ही संसार या बन्ध है और उस का वियोग ही मोक्ष है।
जैन-मत में भी जीव और कर्म पुद्गल का अनादिकालीन सम्बन्ध बन्ध है और उसका वियोग मोक्ष।
इस प्रकार सांख्य, जैन, बौद्ध तथा पूर्वोक्त न्याय-वैशेषिक आदि सबने जीव व जड़ के संयोग को अनादिकालीन मान्य किया है और उसी का नाम संसार या बन्ध है ।
जब हम यह कहते हैं कि जीव और शरीर का सम्बन्ध अनादि है, तब इस का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि वह परम्परा से अनादि है । जीव नए-नए शरीर ग्रहण करता है । वह किसी भी समय शरीर-रहित नहीं था। पूर्ववर्ती वासना के कारण नए-नए शरीर की उत्पत्ति होती है और शरीर के उत्पन्न होने के उपरांत नई-नई वासनाओं का जन्म होता है । यह वासना फिर नए शरीर को उत्पन्न करती है । इस प्रकार बीज व अंकुर के समान ये दोनों ही जीव के साथ अनादि काल से हैं। अनादि अविद्या के कारण अनात्म में जो आत्म-ग्रहण की बुद्धि है, उसी के कारण बाह्य विषयों में तृष्णा या राग उत्पन्न होता है और इस से ही संसार. परम्परा चलती रहती है। अविद्या का निरोध हो जाने पर बन्धन कट जाता है और फिर तष्णा के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। अतः नया उपादान नहीं होता और संसार के मूल पर कुठाराघात हो जाने से वह नष्ट हो जाता है ।
सांख्यों ने एक लंगड़े और एक अन्धे व्यक्ति के लोक-प्रसिद्ध उदाहरण से सिद्ध किया है कि, संसार-चक्र का प्रवर्तन जड़-चेतन इन दोनों के संयोग से होता है । एकाकी पुरुष अथवा प्रकृति में संसार के निर्माण की शक्ति नहीं है, किन्तु जिस समय ये दोनों मिलते हैं, उस समय ही संसार की प्रवृत्ति होती है। जब तक पुरुष जड़-प्रकृति को अपनी शक्ति प्रदान नहीं करता तब तक उसमें यह सामर्थ्य नहीं है कि शरीर, इन्द्रिय आदि रूप में परिणत हो सके। उसी प्रकार यदि प्रकृति की जड़-शक्ति पुरुष को प्राप्त न हो, तो वह भी अकेले शरीरादि का निर्माण करने में समर्थ नहीं है। इन दोनों का सम्बन्ध अनादि काल से है, अतः संसार-चक्र भी अनादि काल से ही प्रवृत्त हुआ है।
बौद्धों के मतानुसार नाम और रूप के संसर्ग से संसार-चक्र अनादि काल से प्रवृत्त हुआ है । विसुद्धिमग्ग के रचयिता बुद्धघोषाचार्य ने भी सां य-शास्त्रों में प्रसिद्ध इसी लंगड़े औः अन्धे का दृष्टान्त देकर बताया है कि, किस प्रकार नाम और रूप दोनों परस्पर सापेक्ष होकर उत्पा व प्रवृत्त होते हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि, एक दूसरे के बिना दोनों ही निस्तेज हैं औ कुछ भी करने में असमर्थ हैं।
1. योगदर्शन 2.17; योगभाष्य 2.17 2. सांख्यकारिका 21 3. विसुद्धिमग्ग 18.35
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