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गणधरवाद
अविद्या विद्यमान है, वह जड़ पदार्थों को अपने शरीरादि रूप से ग्रहण करता है, अत: जड़ और जीव का विशिष्ट संयोग ही बन्ध कहलाता है। जीव को मानने वाले सब मतों में सामान्यतः बन्ध की ऐसी ही व्याख्या है ।
अात्म और अनात्म इन दोनों का बन्ध कब से हुअा ? इस प्रश्न का विचार कर्म-तत्त्व विषयक विचार से संकलित है। उपनिषदों में कर्म-तत्त्व विषयक मात्र इस सामान्य विचार का उल्लेख है कि, शुभ कर्मों का शुभ तथा अशुभ कर्मों का अशुभ फल मिलता है। किन्तु कर्म-तत्त्व क्या है ? वह अपना फल किस प्रकार देता है ? इसका प्रात्मा के साथ कब सम्बन्ध हुआ? इन सब विषयों का विचार उपनिषदों के तत्त्वज्ञान के साथ प्रोत-प्रोत हो, यह बात प्राचीन उपनिषदों में प्राप्त नहीं होती। यह तथ्य प्राचीन उपनिषदों के किसी भी अध्येता को अज्ञात नहीं है। यह भी विदित होता है कि, कर्म सम्बन्धी ये विचार उपनिषद् भिन्न-परम्परा से उपनिषदों में आए और औपनिषद् तत्त्व-ज्ञान के साथ उनकी संगति बिठाने का प्रयत्न किया जाता रहा, किन्तु वह अधरा ही रहा। इस विषय में विशेष विचार कर्म-विषयक प्रकरण में किया जाएगा। यहाँ इतना ही उल्लेख पर्याप्त है कि, जगत् को ईश्वर-कृत मान कर भी न्यायवैशेषिक दर्शनों ने ससार को अनादि माना है और चेतन तथा शरीर के सम्बन्ध को भी अनादि ही माना है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, उनके मत में आत्म और अनात्म का बन्ध अनादि है। किन्तु उपनिषद्-सम्मत विविध सष्टि-प्रक्रिया में जीव की सत्ता ही सर्वत्र अनादि सिद्ध नहीं होती तो फिर प्रात्म और अनात्म के सम्बन्ध को अनादि कहने का अवसर ही कैसे प्राप्त हो सकता है ? कर्म-सिद्धान्त के अनुसार तो आत्म-अनात्म के सम्बन्ध को अनादि मानना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाए तो कर्म-सिद्धान्त की मान्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही कारण है कि, उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया का सम्बन्ध अनादि मानना पड़ा। भास्कराचार्य के लिए सत्यरूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि सम्बन्ध मानने के अतिरिक्त और कोई मार्ग न था, रामानुज ने भी बद्ध जीव को अनादिकाल से बद्ध स्वीकार किया। निम्बार्क और मध्व ने भी अविद्या तथा कर्म के कारण जीव के लिए संसार माना है और यह अविद्या व कर्म भी अनादि हैं । वल्लभ के मतानुसार भी जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है, उसी प्रकार उसका कार्य जीद भी अनादि है । अतः जीव तथा अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है।
सांख्य-मत में भी प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्ध है और वह अनादि काल से चला आ रहा है । प्रकृति निष्पन्न लिंग-शरीर अनादि है और वह अनादि काल से ही पुरुष के साथ सम्बद्ध है। दूसरे दार्शनिकों की मान्यता है कि, बन्ध और मोक्ष पुरुष के होते हैं, परन्तु साँख्य-मत में बन्ध तथा मोक्ष प्रकृति के होते हैं, पुरुष के नहीं । इसी प्रकार योग-दर्शन के मत
1. अनादिश्चेतनस्य शरीरयोगः, अनादिश्च रागानुबन्ध इति-न्यायभा० 3.1 25; एवं च
अनादिः संसारोऽपवर्गान्तः-न्यायवा० 3.1.27; अनादि: चेतनस्य शरीरयोग :-न्यायवा०
3.1.28 2. सांख्यकारिका 52
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