SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना है और इष्ट पूर्त में संलग्न होना दाक्षिणक बन्ध है । सारांश यह है कि, सांख्यों के अनुसार भीनात्मा में आत्म-बुद्धि करना ही मिथ्या ज्ञान है । योगदर्शन के अनुसार क्लेश संसार के मूल हैं, अर्थात् बन्ध के कारण हैं और सब क्लेशों का मूल अविद्या है । सांख्य जिसे विपर्यय कहते हैं, योगदर्शन' उसे क्लेश मानता है । योगदर्शन में अविद्या का लक्षण है- अनित्य, प्रशुचि, दुःख और अनात्म वस्तु में नित्य, शुचि, शुभ और आत्मबुद्धि करना । जैन दर्शन में बन्ध - कारण की चर्चा दो प्रकार से की गई है - शास्त्रीय और लौकिक । कर्मशास्त्र में बन्ध के कारणों की जो चर्चा है, वह शास्त्रीय प्रकार है । वहाँ कषाय और योग ये दोनों बन्ध के कारण माने गए हैं। इनका ही विस्तार कर मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग ये चार और कहीं उनमें प्रमाद को भी सम्मिलित कर पाँच कारण गिनाए गए हैं । इनमें से मिथ्यात्व दूसरे दर्शनों में प्रविद्या, मिथ्याज्ञान, अज्ञान के नाम से प्रसिद्ध है । लोकानुसरण करते हुए जैनागमों में राग, द्वेष और मोह को भी संसार का कारण माना गया है। पूर्वोक्त कषाय के चार भेद हैं— क्रोध, मान, माया और लोभ । राग और द्वेष इन दोनों में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है । राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश है । इस राग व द्वेष के मूल में भी मोह है, यह बात अन्य दार्शनिकों के समान जैनागमों में भी स्वीकार की गई है । इस प्रकार सब दर्शन इस विषय में सहमत हैं कि मिथ्यात्व मिथ्याज्ञान, मोह, विपर्यय, विद्या प्रादि विविध नामों से विख्यात अनात्म में आत्मबुद्धि ही बन्ध का कारण है । सब की मान्यतानुसार इन कारणों का नाश होने से ही ग्रात्मा में मोक्ष की सम्भावना है, अन्यथा नहीं । मुमुक्षु के लिए सर्वप्रथम कार्य यही है कि, अनात्म में आत्म-बुद्धि का निराकरण किया जाए । (इ) बन्ध क्या है ? आत्मा या जीव तत्त्व तथा अनात्मा अथवा प्रजीव तत्त्व ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी इन दोनों का जो विशिष्ट संयोग होता है, वही बन्ध है, अर्थात् जीव का शरीर के साथ संयोग ही प्रात्मा का बन्ध है । जब तक शरीर का नाश न हो जाए तब तक जीव का सर्वथा मोक्ष नहीं हो सकता । मुक्त जीवों का भी प्रजीव या जड़ पदार्थों के साथ- पुद्गल परमाणुओं के साथ संयोग तो है, किन्तु वह संयोग बन्ध की कोटि में नहीं आता, क्योंकि मुक्त जीवों में बन्ध के कारणभूत मोह, अविद्या, मिथ्यात्व का अभाव है । अर्थात् उनका जड़ से संयोग होने पर भी वे इन जड़ पदार्थों को अपने शरीरादि रूप से ग्रहण नहीं करते । किन्तु जिस जीव में 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. सांख्यतत्वको ० 109 ० का ० 44 योगदर्शन 2.3; 2.4 योगदर्शन 2.5. Jain Education International तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन ( पं. सुखलालजी ) 8.1. उत्तराध्ययन 21.19, 23.43, 28.20; 29.71. 'दोहि ठाणेहिं पावकम्मा बंधति.... रागेण य दोसेण य । रागे दुविहे पण्णते ।... माया लोभ य । दोसे दुवि... कोहे य माणे य' स्थानांग 2.2. उत्तरा० 32.7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy