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________________ 108 गणधरवाद मान्यता प्रदान की है। समस्त दर्शनों ने अविद्या, मोह, अज्ञान, मिथ्याज्ञान को बन्ध अथवा संसार का कारण और विद्या अथवा तत्त्वज्ञान को मोक्ष का हेतु माना है। यह बात भी सर्वसम्मत है कि, तृष्णा बन्ध की कारणभूत अविद्या की सहयोगिनी है, किन्तु मोक्ष के कारणभूत तत्त्वज्ञान के गौण-मुख्य भाव के सम्बन्ध में विवाद है। उपनिषदों के ऋषियों ने मुख्यत: तत्त्वज्ञान को कारण माना है और कर्म-उपासना को गौण स्थान दिया है। यही बात बौद्धदर्शन, न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन, सांख्यदर्शन, शांकर-वेदान्त आदि दर्शनों को भी मान्य है। मीमांसा-दर्शन के अनुसार कर्म प्रधान है और तत्त्वज्ञान गौण। भक्ति-सम्प्रदाय के मुख्य प्रणेता रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ इन सबके मत में भक्ति ही श्रेष्ठ उपाय है. ज्ञान व कर्म गौण हैं। भास्करानयायी वेदान्ती और शेव ज्ञान-कर्म के समुच्चय को मोक्ष का कारण मानते हैं और जैन भी ज्ञान-कर्म अर्थात् ज्ञान-चारित्र के समुच्चय को मोक्ष का कारण स्वीकार करते हैं। (प्रा) बन्ध का कारण समस्त दर्शन इस बात से सहमत हैं कि, अनात्मा में प्रात्माभिमान करना ही मिथ्याज्ञान अथवा मोह है । अनात्मवादी बौद्ध तक यह बात स्वीकार करते हैं। भेद यह है कि, आत्मवादियों के मत में आत्मा एक स्वतन्त्र, शाश्वत वस्तु के रूप में सत् है और पृथ्वी आदि तत्त्वों से निर्मित शरीर आदि से पृथक् है। फिर भी शरीरादि को आत्मा मानने का कारण मिथ्याज्ञान है, जबकि बौद्धों के मत में आत्मा जैसी किसी स्वतन्त्र शाश्वत वस्तु का अस्तित्व नहीं है। ऐसा होने पर भी शरीरादि अनात्मा में जो आत्म-बद्धि होती है, वह मिथ्याज्ञान अथवा मोह है । छान्दोग्य में कहा है कि, अनात्म-देहादि को प्रात्मा मानना असुरों का ज्ञान है और उससे आत्मा परवश हो जाती है। इसी का नाम बन्ध है। सर्वसारोपनिषद्ध में तो स्पष्टतः कहा है कि, अनात्म-देहादि में प्रात्मत्व का अभिमान करना बन्ध है और उससे निवृत्ति मोक्ष है । न्यायदर्शन के भाष्य में बताया गया है कि, मिथ्याज्ञान ही मोह है और वह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप ही नहीं है, परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना और बुद्धि इन सबके अनात्मा होने पर भी इनमें प्रात्मग्रह अर्थात् अहंकार—यह मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान, मिथ्याज्ञान अथवा मोह है। यह बात वैशेषिकों को भी मान्य है । सांख्य-दर्शन में बन्ध विपयर्य पर आधारित है और विपर्यय ही मिथ्याज्ञान है । सांख्य मानते हैं कि, इस विपर्यय से होने वाला बन्ध तीन प्रकार का है। प्रकृति को प्रात्मा मान कर उसकी उपासना करना प्राकृतिक बन्ध है, भूत, इन्द्रिय, अहंकार, बुद्धि इन विकारों को प्रात्मा समझ कर उपासना करना वैकारिक बन्ध 1. सुत्तनिपात 3.12.33; विसुद्धिमग्ग 17.302 2. छान्दोग्य 8.8.4-5. 3. 'अनात्मनां देहादीनामात्मत्वेनाभिमान्यते सोऽभिमानः प्रात्मनो बन्धः । तन्निवृत्तिर्मोक्षः।' सर्वसारोपनिषद् । 4. न्यायभाष्य 4 2.1; प्रशस्तपाद पृष्ठ 538 (विपर्यय निरूपण) सांख्यका० 44 ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम्-माठरवृत्ति 44 Jain Education. International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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