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प्रस्तावना
विषय को उपनिषद् की भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं- संसारी जीव कर्म का कर्ता है किन्तु शुद्ध जीव कर्म का कर्ता नहीं है ।
उपनिषदों के मतानुसार भी संसारी आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और जैनमत में भी संसारी जीव तथा शुद्ध जीव एक ही हैं। दोनों में यदि भेद है तो वह यही है कि, उपनिषदों के अनुसार परमात्मा एक ही है और जैनमत में शुद्ध जीव अनेक हैं, किन्तु जैनों द्वारा सम्मत संग्रहनय की अपेक्षा से यह भेद रेखा भी दूर हो जाती है । संग्रहनय का मत है कि, शुद्ध जीव चैतन्य स्वरूप की दृष्टि से एक ही है । जब हम इस बात का स्मरण करते हैं कि, भगवान् महावीर ने गौतम गणधर से कहा था कि, भविष्य में हम एक सदृश होने वाले हैं, तब निर्वाण अवस्था में अनेक जीवों का अस्तित्व मान कर भी अद्वैत और द्वैत दोनों बहुत निकट हैं ऐसा प्रतीत होता है ।
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नैयायिक आदि आत्मा को एकान्त नित्य मान कर, बौद्ध अनित्य मान कर तथा जैन, मीमांसक और अधिकतर वेदान्ती उसे परिणामी नित्य मान कर उसमें कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व की सिद्धि करते हैं, किन्तु इन सब के मतानुसार मोक्षावस्था में इन दोनों में से किसी का भी अस्तित्व नहीं है । जब हम इस बात को अपने ध्यान में रखते हैं तब ज्ञात होता कि, सभी दर्शन एक ही उद्द ेश्य को सन्मुख रख कर प्रवृत्त हुए हैं और वह है— जीव को कर्मपाश से कैसे मुक्त किया जाए ?
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जिस प्रकार नित्यवादियों के समक्ष यह प्रश्न था कि, कर्म-कर्तृत्व और भोक्तृत्व की उपपत्ति कैसे की जाए ? उसी प्रकार यह भी समस्या थी कि, नित्य आत्मा में जन्म-मरण किस तरह होते हैं ? उन्होंने इस समस्या का यह समाधान किया है कि, आत्मा के जन्म का तात्पर्य उसकी उत्पत्ति नहीं है | शरीरेन्द्रिय आदि से सम्बन्ध का नाम जन्म है और उन से वियोग का नाम मृत्यु | इस प्रकार आत्मा के नित्य होने पर भी उसमें जन्म-मरण होते हैं ।
7. जीव का बन्ध और मोक्ष
छट्ट गणधर के साथ हुई चर्चा में बन्ध और मोक्ष तथा गयारहवें गणधर के साथ हुई चर्चा में निर्वाण पर ऊहापोह हुआ है । यद्यपि मोक्ष का ही दूसरा नाम निर्वाण है, तथापि उसकी चर्चा दो बार हुई है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि, छट्ठ गणधर के साथ हुए प्रश्नोत्तर में बन्ध-सापेक्ष मोक्ष की चर्चा है और मोक्ष सम्भव है या नहीं ? मुख्यतः इस पर विचार किया गया है, परन्तु निर्वाण सम्बन्धी चर्चा में निर्वाण के अस्तित्व के अतिरिक्त उसके स्वरूप पर मुख्यतः विचार किया गया है ।
(अ) मोक्ष का कारण
जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने वाले सभी भारतीय दर्शनों ने बन्ध और मोक्ष को स्वीकार किया ही है । इतना ही नहीं, अपितु अनात्मवादी बौद्धों ने भी बन्ध-मोक्ष को
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भगवती 14.7
2. न्यायभाष्य 1.1.19; 4.1.10; न्यायवा० 3.1.4; 3.1.19
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