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गणधरवाद
धम्मपद का निम्न कथन भी सन्तति की अपेक्षा से कर्तृत्व और भोक्तृत्व की मान्यता के अनुसार ही है, अन्यथा नहीं । “जो पाप है, उसे प्रात्मा ने ही किया है, वह आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है। पाप करने वाले को ही उस का फल भोगना पड़ता है। इस संसार में कोई ऐसा स्थान महीं जहाँ चले जाने से ममुष्य पाप के फल से बच जाए' इत्यादि।" बुद्ध ने अपने विषय में कहा है :
'इत एकमवति कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।। 'आज से पूर्व 91वें कल्प में मैंने अपने बल से एक मनुष्य का वध किया था, उस कर्म के विपाक के कारण आज मेरा पाँव घायल हुया है।' बुद्ध का यह कथन भी शाश्वत प्रात्मा की अपेक्षा से नहीं, अपितु सन्तान की अपेक्षा से ही समझना चाहिए ।
बौद्धों के मत के अनुसार कर्तृत्व का अर्थ भी समझ लेना चाहिए । कुशल अथवा अकुशल चित्त की उत्पत्ति ही कुशल या अकुशल कर्म का भी कर्तृत्व है। उनके मत में कर्ता और क्रिया भिन्न नहीं हैं, ये दोनों एक ही हैं । क्रिया ही कर्ता है और कर्ता ही क्रिया है। चित्त और उसकी उत्पत्ति में कुछ भी भेद नहीं है। यही बात भोक्तृत्व के विषय में भी है । भोग और भोक्ता भिन्न नहीं हैं । दुःख-वंदना के रूप में चित्त की उत्पत्ति ही चित्त का भोक्तृत्व है। इसीलिये बुद्धघोष ने कहा है कि, कर्म का कोई कर्ता नहीं मौर विपाक का कोई अनुभव करने वाला (वेदक) नहीं, केबल शुद्ध धर्मों की प्रवृत्ति है।
(ई) जैन मत
जैन आगमों में भी जीव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का वर्णन है। उत्तराध्ययन के 'कम्मा रगाणाविहा कट्ट.' (3.2)-अनेक प्रकार के कर्म करके, 'कडाण कम्माण न मोक्खु अस्थि' (4.3; 12,10)-किए हुए कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं; 'कत्तारमेव प्रजाइ कम्म' (1 3.23)-कर्म कर्ता का अनुसरण करता है, इत्यादि वाक्य असंदिग्ध रूपेण जीव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का वर्णन करते हैं। किन्तु जिस प्रकार उपनिषदों में जीवात्मा को कर्ता और भोक्ता मान कर भी परमात्मा को दोनों से रहित माना गया है, उसी प्रकार जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के कर्म-कर्तृत्व और कर्म-भोक्तृत्व को व्यावहारिक दृष्टि में माना है और यह भी स्पष्टीकरण किया है कि, निश्चय दृष्टि से जीव कर्म का कर्ता भी नहीं और भोक्ता भी नहीं। इस
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1. प्रत्तनाव कतं पापं अत्तजे अत्तसम्भव-धम्मपद 161.
धम्मपद 66 3. धम्मपद 127 4. विसुद्धि मग्ग 19,20; इस विषय में विशेष विचार 'भगवान् बुद्ध का अनात्मवाद' इस
शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है। 'न्यायावतार' टि० पू० 152 देखें। 5. समयसार 93; 98 से आगे।
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