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________________ प्रस्तावना 105 (इ) बौद्ध-मत अनात्मवादी-प्रशाश्वतात्मवादी बौद्ध भी पुद्गल को कर्ता और भोक्ता मानते हैं । उनके मत में नाम-रूप का समुदाय पुद्गल या जीव है। एक नाम-रूप से दूसरा नाम-रूप उत्पन्न होता है । जिस नाम-रूप ने कर्म किया, वह तो नष्ट हो जाता है, किंतु उससे दूसरे नाम-रूप की उत्पत्ति होती है और वह पूर्वोक्त कर्म का भोक्ता होता है । इस प्रकार सन्तति की अपेक्षा से पुद्गल में कर्तृत्व और भोक्तृत्व पाए जाते हैं । ___ काश्यप ने संयुक्तनिकाय में भगवान् बुद्ध से इस विषय में चर्चा की है। उसने भगवान से पूछा, 'दुःख स्वकृत है ? परकृत है ? स्वपरकृत है ? या अस्वपरकृत है ?' इन सब प्रश्नों का उत्तर भगवान् ने नकारात्मक दिया। तब काश्यप ने भगवान से प्रार्थना की कि, वे इसका स्पष्टीकरण करें। भगवान् ने उत्तर देते हुए कहा कि, दुःख स्वकृत है, इस कथन का अर्थ यह होगा कि जिसने किया, वही उसे भोगेगा, किंतु इससे प्रात्मा को शाश्वत मानना पड़ेगा। यदि दुःख को स्वकृत न मानकर परकृत माना जाए अर्थात् कर्म का कर्ता कोई और है तथा भोक्ता अन्य है यह कहा जाए, तो इससे प्रात्मा का उच्छेद मानना पड़ेगा। किन्तु तथागत के लिए शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों ही अनिष्ट हैं। उसे प्रतीत्यसमुत्पादवाद मान्य है, अर्थात् पूर्वकालीन नाम-रूप था अतः उत्तरकालीन नाम-रूप की उत्पत्ति हुई । दूसरा पहले से उत्पन्न हुअा है, अतः पहले द्वारा किए गए कर्म को भोगता है। यही बात राजा मिलिन्द को अनेक दृष्टान्तों द्वारा भदन्त नागसेन ने समझायी। उनमें एक दृष्टान्त यह था-एक व्यक्ति दीपक जलाकर घासफूस की झोपड़ी में भोजन करने बैठा । अकस्मात् उस दीपक से झोंपड़ी में आग लग गई। वह अाग क्रमशः बढ़ते-बढ़ते सारे गाँव में फैल गई और उससे सारा गाँव जल गया। भोजन करने वाले व्यक्ति के दीपक से केवल झोंपड़ी ही जली थी, किंतु उससे उत्तरोत्तर अग्नि का जो प्रवाह प्रारम्भ हुआ, उसने सारे गाँव को भस्म कर दिया । यद्यपि दीपक की अग्नि से परम्परा-बद्ध उत्पन्न होने वाली अन्य अग्नियाँ भिन्न थीं, तथापि यह माना जाएगा कि दीपक ने गाँव जला डाला । अतः दीपक जलाने वाला व्यक्ति अपराधी माना जाएगा। यही बात पुद्गल के विषय में है । जिस पूर्व पुद्गल ने काम किया, वह पुद्गल चाहे नष्ट हो जाय, किन्तु उसी पुद्गल के कारण नये पुद्गल का जन्म होता है और वह फल भोगता है । इस प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्व सन्तति में सिद्ध हो जाते हैं और कोई कर्म अभुक्त नही रहता । जिसने कार्य किया, उसी को सन्तति की दृष्टि से उसका फल मिल जाता है । बौद्धों की यह कारिका सुप्रसिद्ध है : 'यस्मिन्नेव हि सन्ताने प्राहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कापसे रक्तता यथा ।।'3 'जिस सन्तान में कर्म की वासना का पुट दिया जाता है उसी में ही कपास की लाली के समान फल प्राप्त होता है।' 1. संयुक्तनिकाय 12.17, 12. 24; विसुद्धिमग्ग 17. 168-174. 2. मिलिन्दप्रश्न 2.31 पृ० 48; न्यायमंजरी पृ. 443. 3. स्याद्वादमंजरी में उद्धृत कारिका 18; न्यायमंजरो पृ. 443 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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