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गणधरवाद
(प्रा) दार्शनिकों का मत
उपनिषदों के इस परमात्मा के वर्णन को निरीश्वर सांख्यों ने पुरुष में स्वीकार किया है और परमात्मा की तरह जीवात्मा-पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता माना है। सांख्य-मत में पुरुष-व्यतिरिक्त किसी परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं था, अतः परमात्मा के धर्मों का पुरुष में आरोप कर और पुरुष को अकर्ता व अभोक्ता कह कर उसे मात्र द्रष्टारूप में स्वीकार किया गया।
इसके विपरीत नैयायिक-वैशेषिकों ने आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों धर्म स्वीकार किए हैं। यही नहीं, परमात्मा में भी जगत्-कर्तुत्व माना गया है । उपनिषदों ने प्रजापति में जगत्-कर्तृत्व स्वीकार किया था, नैयायिक-वंशेषिकों ने उसे परमात्मा का धर्म मान लिया।
नैयायिक-वैशेषिक मत में प्रात्मा एकरूप नित्य है, अतः उस में कर्तृत्व और भोक्तृत्व जैसे ऋमिक-धर्म कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? यदि वह कर्ता हो तो कर्ता ही रहेगा और भोक्ता हो तो भोक्ता ही रह सकता है। किंतु एकरूप वस्तु में यह कैसे सम्भव है कि वह पहले कर्ता हो और फिर भोक्ता? इस प्रश्न के उत्तर में नैयायिक और वैशेषिक कर्तृत्व प्रोर भोक्तृत्व की यह व्याख्या करते हैं :-"यात्म-द्रव्य के नित्य होने पर भी उसमें ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न का जो समवाय है, उसी का नाम कर्तृत्व है, अर्थात् प्रात्मा में ज्ञानादि का समवाय सम्बन्ध होना ही कत त्व है। दूसरे शब्दों में आत्मा में ज्ञानादि की उत्पत्ति ही आत्मा का कर्तृत्व है। प्रात्मा स्थिर है परन्तु उससे ज्ञान का सम्बन्ध होता है और वह नष्ट भी होता है। अर्थात् ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न व नष्ट होता है। प्रात्मा पूर्ववत् स्थिर ही रहती है।” इसी प्रकार उन्होंने भोक्तृत्व का स्पष्टीकरण किया है:-'सुख और दुःख के संवेदन का समवाय होना भोक्तृत्व है। प्रात्मा में सुख और दुःख का जो अनुभव होता है, उसे भोक्तृत्व कहते हैं, यह अनुभव भी ज्ञानरूप होता है, अत: वह आत्मा में उत्पन्न और नष्ट होता है। फिर भी आत्मा विकृत नहीं होती। उत्पत्ति और विनाश अनुभव के हैं, प्रात्मा के नहीं । क्योंकि इस अनुभव का समवाय सम्बन्ध आत्मा से होता है, अतः प्रात्मा भोक्ता कहलाती है। उस सम्बन्ध के नष्ट हो जाने पर वह भोक्ता नहीं रहती।" इनके मत में द्रव्य और गुण में भेद है, अतः गुण में उत्पत्ति और विनाश होने पर भी द्रव्य नित्य रह सकता है । इससे विपरीत जैन आदि जो दर्शन जीव को परिणामी मानते हैं उन सब के मत में प्रात्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होने के कारण उसमें सर्वदा एकरूपता नहीं हो सकती। वही प्रात्मा कर्तारूप में परिणत होकर फिर भोक्तारूप में परिणत हो जाती है । यद्यपि कर्तारूप परिणाम और भोक्तारूप परिणाम भिन्न-भिन्न हैं तथापि दोनों में आत्मा का अन्वय है, अतः एक ही आत्मा कर्ता और भोक्ता कहलाती है। इसी बात को नैयायिक इस ढंग से कहते हैं कि, एक ही आत्मा में वस्तु-ज्ञान का पहले समवाय होता है, अतः उसे कर्ता कहते हैं और उसी आत्मा में बाद में सुखादि के संवेदक का समवाय होता है, अतः उसे भोक्ता कहते हैं।
1. मैत्रायणी 2.6. 2. 'ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नानां समवाय : कर्तृत्वम्' न्यायवार्तिक 3.1.6; न्यायमंजरी पृ. 469. 3. सुखदुःखसं वित्समवायो भोक्तृत्वम्-न्यायवा० 3.1.6.
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