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प्रस्तावना
विचार किया जाय तो असंगत नहीं है। ग्रात्मवादी समस्त दर्शनों ने भोक्तृत्व तो स्वीकार किया ही है, किन्तु कर्तृत्व के विषय में केवल सांख्य का मत दूसरों से भिन्न है । उसके अनुसार आत्मा कर्ता नहीं किन्तु भोक्ता है और यह भोक्तृत्व भी श्रीपचारिक है ।
(अ) उपनिषदों का मत
उपनिषदों में जीव के कर्तृत्व व भोक्तृत्व का वर्णन है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है कि, यह जीवात्मा फल के लिए कर्मों का कर्त्ता है और किए हुए कर्मो का भोक्ता भी है । चहाँ यह भी बताया गया है कि, जीव वस्तुतः न स्त्री है, न पुरुष और न ही नपुंसक । अपने कर्मों के अनुसार वह जिस-जिस शरीर को धारण करता है, उससे उसका सम्बन्ध हो जाता है । शरीर की वृद्धि और जन्म-संकल्प, विषय के स्पर्श, दृष्टि, मोह, अन्न और जल से होते हैं । देह युक्त जीव अपने कर्मों के अनुसार शरीरों को भिन्न-भिन्न स्थानों में क्रम-पूर्वक प्राप्त करता है और वह कर्म तथा शरीर के गुणानुसार प्रत्येक जन्म में पृथक्-पृथक् भी दृष्टिगोचर होता है । बृहदारण्यक के निम्नलिखित वाक्य भी जीवात्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को प्रकट करते हैं :-- 'पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन' ( 3.2.13) 'शुभ काम करने वाला शुभ बनता है और अशुभ काम करने वाला अशुभ' । “यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मरणा भवति, पापः पापेन । प्रथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कर्तु र्भवति, यत्कतु र्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ।" (4.45) 'मनुष्य जैसे काम व आचरण करता है, वैसे ही वह बन जाता है । अच्छे काम करने वाला अच्छा बनता है और बुरे काम करने वाला बुरा । पुण्य कार्य से पुण्यशाली और पाप कर्म से पापी बनता है । इसीलिए कहा है कि मनुष्य कामनाओं का बना हुआ है | जैसी उसकी कामना होती है, उसी के अनुसार वह निश्चय करता है, जैसा निश्चय करता है वैसा ही काम करता है और जैसे काम करता है वैसे ही फल पाता है ।"
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किन्तु यह जीवात्मा जिस ब्रह्म या परमात्मा का अंश है, उसे उपनिषदों में अकर्ता और अभोक्ता कहा गया है । उसे केवल अपनी लीला का द्रष्टा माना गया है । यह बात इस कथन से स्पष्ट हो जाती है: - 'यह आत्मा शरीर के वश हो कर अथवा शुभाशुभ कर्म के बन्धनों में बद्ध होकर भिन्न-भिन्न शरीरों में संचार करता है ।' किंतु वस्तुतः देखा जाय तो यह अव्यक्त, सूक्ष्म, अदृश्य, अग्राह्य और ममता रहित है, अतः वह सब अवस्थानों से शून्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि वह कर्तृत्व से विहीन होकर भी कर्तारूप में दिखाई देता है । यह श्रात्मा शुद्ध, स्थिर, अचल, प्रासक्ति रहित, दुःख रहित, इच्छा रहित, द्रष्टा के समान है और अपने कर्मो का भोग करते हुए दृष्टिगोचर होता है । उसी प्रकार तीन गुणरूपी वस्त्र से अपने स्वरूप को ग्राच्छादित किए हुए ज्ञात होता है ।
1.
इस वाद के सदृश उपनिषदों में भी कथन है- मंत्रायणी 2.10-11; सां० का० 19.
2.
श्वेताश्वतर 5.7.
3. श्वेताश्वतर 5.10-12.
4.
मंत्रायणी 2. 10. 11
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