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________________ 102 आधार पर आत्मा को प्रनित्य माना जाए। इसके विपरीत जैन श्रात्म-द्रव्य से ज्ञानादि गुणों का प्रभेद मानते हैं, अतः गुणों की अस्थिरता के कारण वे प्रात्मा को भी अस्थिर या प्रनित्य कहते हैं । (ई) बौद्ध सम्मत श्रनित्यवाद गणधरवाद बौद्ध के मत में जीव अथवा पुद्गल अनित्य हैं । प्रत्येक क्षण में विज्ञान आदि चित्त-क्षण नए-नए उत्पन्न होते हैं और पुद्गल इन विज्ञान-क्षणों से भिन्न नहीं है, अतः उनके मत में पुद्गल या जीव अनित्य है । किन्तु एक पुद्गल की सन्तति अनादिकाल से चली आ रही है और भविष्य में भी वह चालू रहेगी, ग्रतः द्रव्य - नित्यता के स्थान पर सन्तति-नित्यता तो बौद्धों को भी अभीष्ट है, ऐसा मानना चाहिए। कार्य-कारण की परम्परा को सन्तति कहते हैं । इस परम्परा का कभी उच्छेद नहीं हुआ और भविष्य में भी उसका क्रम विद्यमान रहेगा । कुछ बौद्ध विद्वानों के अनुसार निर्वाण के समय यह परम्परा समाप्त हो जाती है, किन्तु कुछ अन्य बौद्धों के मत से विशुद्ध चित्त परम्परा कायम रहती है, अतः इस अपेक्षा से कहा जा सकता है कि, बौद्धों को सन्तति-नित्यता मान्य है | ( उ ) वेदान्त सम्मत जीव को परिणामी नित्यता वेदान्त में ब्रह्मात्मा-परमात्मा को एकान्त नित्य माना गया है । किन्तु जीवात्मा के विषय में जो अनेक मन्तव्य हैं, उनका वर्णन पहले किया जा चुका है। उसके अनुसार शंकराचार्य के मत में जीवात्मा मायिक है, वह अनादिकालीन प्रज्ञान के कारण अनादि तो है, किन्तु अज्ञान का नाश होने पर वह ब्रह्म क्य का अनुभव करती है । उस समय जीव-भाव नष्ट हो जाता है, अतः यह कल्पना की जा सकती है कि, मायिक जीव ब्रह्म रूप में नित्य है और मायारूप में अनित्य । शंकराचार्य को छोड़कर लगभग समस्त वेदान्ती ब्रह्म का विवर्त न मानकर परिणाम स्वीकार करते हैं, इस दृष्टि से जीवात्मा को परिणामी नित्य कहना चाहिए। जैन व मीमांसकों के परिणामी नित्यवाद तथा वेदान्तियों के परिणामी नित्यवाद में यह अन्तर है कि, जैन व मीमांसकों के मत में जीव स्वतन्त्र है और उसका परिणमन हुआ करता है, किन्तु वेदान्तियों के परिणामी नित्यवाद में जीव और ब्रह्म की अपेक्षा से परिणामवाद समझने का है, अर्थात् ब्रह्म के विविध परिणाम ही जीव हैं । जीव को सर्वथा नित्य माना जाए अथवा अनित्य ? किन्तु सभी दार्शनिकों ने अपनीअपनी पद्धति से संसार और मोक्ष की उपपत्ति तो की ही है। इससे नित्य मानने वालों के मत में उसकी सर्वथा एकरूपता और अनित्य मानने वालों के मत में उसका सर्वथा भेद स्थिर नहीं रह सकता । अतः संसार और मोक्ष की कल्पना के साथ परिणामी नित्यवाद अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । जैन, मीमांसक और वेदान्त के शंकरातिरिक्त टीकाकारों ने इसी वाद को मान्यता दी है। 6. जीव का कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व प्रथम गणधर इन्द्रभूति ( गा० 1567-68 ) तथा पुन: दसवें गणधर मेतार्य के साथ हुई चर्चा (गा० 1957 ) में जीव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का उल्लेख है । अतः इस विषय में विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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