________________
प्रस्तावना
की रचना करता है । जो व्यक्ति जीव को प्रणु-परिमाण मानते हैं, उनके सिद्धान्तानुसार भी जीव लिंग शरीर को साथ ले कर गमन करता है और नए शरीर का निर्माण करता है । बौद्धों के मत में गति का अर्थ यह है कि, मृत्यु के समय एक पुद्गल का निरोध होता है और उसी के कारण ग्रन्यत्र नवीन पुद्गल उत्पन्न होता है । इसी को पुद्गल की गति कहते हैं ।
उपनिषदों में भी क्वचित् मृत्यु के समय जीव की गति अथवा गमन का वर्णन आता है । इससे ज्ञात होता है कि, जीव की गति की मान्यता प्राचीनकाल से चली आ रही है । 5. जीव की नित्यानित्यता
(अ) जैन और मीमांसक
उपनिषद् के 'विज्ञानघन' इत्यादि वाक्य की व्याख्या ( गा० 1593-96) और बौद्ध सम्मत 'क्षणिक विज्ञान' का निराकरण ( मा० 1631) करते हुए तथा अन्यत्र ( गा० 1843, 1961) आत्मा को नित्यानित्य कहा गया है। चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है, अर्थात् आत्मा कभी भी अनात्मा से उत्पन्न नहीं होती और न ही आत्मा किसी भी अवस्था में नात्मा बनती है । इस दृष्टि से उसे नित्य कहते हैं । परन्तु आत्मा में ज्ञान-विज्ञान की पर्याय अथवा अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः वह अनित्य भी है। यह स्पष्टीकरण जैन- दृष्टि के अनुसार है और मीमांसक कुमारिल को भी यह दृष्टि मान्य है" ।
(अ) सांख्य का कूटस्थवाद
इस विषय में दार्शनिकों की परम्पराम्रों पर कुछ विचार करना श्रावश्यक है । सांख्ययोग आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है, अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार इष्ट नहीं है । संसार और मोक्ष भी ग्रात्मा के नहीं प्रत्युत प्रकृति के माने गए हैं (सां० का ० 62 ) । सुख, दुःख, ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं ( सां० का० 11 ) । इस तरह वह श्रात्मा को सर्वथा अपरिणामी स्वीकार करता है । कर्तृत्व न होने पर भी भोग प्रात्मा में ही माना
गया है । इस भोग के आधार पर भी आत्मा में परिणाम की सम्भावना है, ग्रत कुछ सांख्य भोग को भी वस्तुतः आत्मा का धर्म मानना उचित नहीं समझते। इस प्रकार उन्होने श्रात्मा के कूटस्थ होने की मान्यता की रक्षा का प्रयत्न किया है । सांख्य के इस वाद को कतिपय उपनिषद् - वाक्यों का आधार भी प्राप्त है । अतः हम कह सकते हैं कि, आत्म-कूटस्थवाद
प्राचीन है ।
(इ) नैयायिक-वैशेषिकों का नित्यवाद
नयायिक और वैशेषिक द्रव्य व गुणों को भिन्न मानते हैं । अतः उनके मत के अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आत्म- द्रव्य में ज्ञानादि गुणों को मानकर भी गुणों की अनित्यता के
1.
2.
3.
4.
5..
छान्दोग्य 8.6.5.
तत्त्वसं ० का ० 23-27; श्लोकबा० आत्मवाद 23-30
सांख्यका० 17
101
सांख्यत 17
कठ० 12. 18-19
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org