________________
100
गणधरवाद
को देह-परिमाण माना और बौद्धों ने भी पुद्गल को देह-परिमाण स्वीकार किया, ऐसी कल्पना की जा सकती है। जैनों ने तो आत्मा को देह-परिमाण स्वीकार किया ही है । आत्मा को देह परिमाण मानने की मान्यता उपनिषदों में भी उपलब्ध होती है । कौषीतकी उपनिषद् में कहा है कि, जैसे तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुण्ड में व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। तैत्तिरीय उपनिषद में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय इन सब प्रात्माओं को शरीर-प्रमाण बताया गया है ।
उपनिषदों में इस बात का भी प्रमाण है कि, अात्मा को शरीर से भी सूक्ष्म परिमाण मानने वाले ऋषि विद्यमान थे । बृहदारण्यक में लिखा है कि, प्रात्मा चावल या जौ के दाने के परिमाण की है । कुछ लोगों के मतानुसार वह अंगुष्ठ-परिमाण है और कुछ की मान्यता के अनुसार बह बालिस्त परिमाण है। मंत्री उपनिषद् (6.38) में तो उसे अण से भी अणु माना गया है। बाद में जब प्रात्मा को अवर्ण्य माना गया तब ऋषियों ने उसे अणु से भी अणु और महान् से भी महान् मानकर सन्तोष किया ।
जब सभी दर्शनों ने प्रात्मा की व्यापकता को स्वीकार किया, तब जनों ने उसे देहपरिमाण मानते हुए भी केवलज्ञान की अपेक्षा से व्यापक कहना शुरु किया। अथवा समुद्घात की अवस्था में आत्मा के प्रदेशों का जो विस्तार होता है, उसकी अपेक्षा से उसे लोकव्याप्त कहा जाने लगा (न्यायखण्डखाद्य)।
आत्मा को देह-परिमाण मानने वालों की युक्तियों का सार प्रस्तुत ग्रन्थ (गा० 1585-87) में दिया गया है, अतः इस विषय में अधिक लिखना अनावश्यक है, किन्तु एक बात का यहाँ उल्लेख करना अनिवार्य है । जो दर्शन प्रात्मा को व्यापक मानते हैं, उनके मत में भी संसारी आत्मा के ज्ञान, सुख, दुःख इत्यादि गुण शरीर-मर्यादित आत्मा में ही अनुभूत होते हैं, शरीर के बाहर के प्रात्म-प्रदेशों में नहीं। इस प्रकार संसारी आत्मा के अनुरूप प्रात्मा को व्यापक माना जाए अथवा शरीर-प्रमाण, किन्तु संसारावस्था तो शरीर-मर्यादित आत्मा में ही है।
आत्मा को व्यापक स्वीकार करने वालों के मत में जीव की भिन्न-भिन्न नारकादि गति सम्भव है, किन्तु उनके अनुसार गति का अर्थ जीव का गमन नहीं है । वे मानते हैं कि, वहाँ लिंग-शरीर का गमन होता है और उसके बाद वहाँ व्यापक प्रात्मा से नवीन शरीर का सम्बन्ध होता है। इसी को जीव की गति कहते हैं। इससे विपरीत देह-परिमाणवादी जैनों की मान्यता के अनुसार जीव अपने कार्मण शरीर के साथ उन-उन स्थानों में गमन करता है और नए शरीर
1. कौषीतकी 4.20.
तैत्तिरीय 1.2. 3. बृहदा० 5.6.1 4. कठ० 2.2.12 5. छान्दोग्य 5.18.1. 6. कठ० 1.2.20; छान्दो० 3.14.3; श्वेता० 3.20 2. ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसं० टी० 10
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org