SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना (8) वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत मार्ग : आचार्य वल्लभ के मतानुसार यद्यपि जगत् ब्रह्म का परिणाम है तथापि ब्रह्म में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता । स्वयं शुद्ध ब्रह्म ही जगत् रूप में परिणमित हुआ है । इस से न तो माया का सम्बन्ध है और न प्रविद्या का, अतः वह शुद्ध कहलाता है और यह शुद्ध ब्रह्म ही कारण तथा कार्य इन दोनों रूपों वाला है । फलतः इस वाद को 'शुद्धाद्वैतवाद' कहते हैं । इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि, कारण- ब्रह्म के समान कार्य ब्रह्म अर्थात् जगत् भी सत्य है, मिथ्या नहीं । “ब्रह्म से जीव का उद्गम अग्नि से स्फुलिंग की उत्पत्ति के समान है । जीव में ब्रह्म के सत् और चित् ये दो अंश प्रकट होते हैं, ग्रानन्द अंश अप्रकट रहता है । जीव नित्य है और - परिमाण है, ब्रह्म का अंश है तथा ब्रह्म से अभिन्न है ।" जीव की अविद्या से उसके अहंता अथवा ममतात्मक संसार का निर्माण होता है । विद्या से अविद्या का नाश होने पर उक्त संसार भी नष्ट हो जाता है । 99 (प्रा) शैवों का मत हम यह वर्णन कर चुके हैं कि वेद और उपनिषदों को प्रमाण मानकर श्रद्वैत ब्रह्म परमात्मा को मानने वाले वेदान्तियों ने जीवों के अनेक होने की उपपत्ति किस प्रकार सिद्ध की है । अब हम शिव के अनुयायी उन शैवों के मत पर विचार करेंगे जो वेद और उपनिषदों को प्रमाणभूत न मानते हुए और वैदिकों द्वारा उपदिष्ट वर्णाश्रमधर्म को अस्वीकार करते हुए भी अद्वैतमार्ग का आश्रय लेते हैं और उस के आधार पर अनेक जीवों सिद्धि करते हैं । इस मत का दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञादर्शन' भी है । शैवों के मत में परमब्रह्म के स्थान पर अनुत्तर नाम का एक तत्त्व है | यह तत्त्व सर्वशक्तिमान् नित्य पदार्थ है । उसे शिव और महेश्वर भी कहते हैं । जीव और जगत् ये दोनों शिव की इच्छा से शिव से ही प्रकट होते हैं । अतः ये दोनों पदार्थ मिथ्या नहीं, किंतु सत्य हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में जीव को तत्त्वतः अनेक सिद्ध करने के लिए उक्त सभी अद्वैत पक्षों से विरुद्ध मत उपस्थित किया गया है। इसमें वेदान्त-सूत्र के व्याख्याकार मध्वाचार्य एक अपवाद हैं | उसने अन्य वैदिक दर्शनों के समान जीवों को तत्त्वतः अनेक मानकर ही ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है । इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि, प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता के समक्ष उक्त सभी वेदान्त के मत विद्यमान ही थे। हमारा अभिप्राय इतना ही है कि इन सभी व्याख्या-भेदों के अनुसार जो मन्तव्य हैं, उनसे सर्वथा भिन्न मत इस ग्रन्थ में प्रतिपादित किया गया है । 4. श्रात्मा का परिमारण उपनिषदों में आत्मा के परिमाण के विषय में अनेक कल्पनाएँ उपबब्ध होती हैं, किंतु इन सब कल्पनाओं के अन्त में ऋषियों की प्रवृत्ति आत्मा को व्यापक मानने की ओर विशेष रूप से हुई । यही कारण है कि लगभग सभी वैदिक दर्शनों ने ग्रात्मा को व्यापक माना है । इस विषय में शंकराचार्य के अतिरिक्त रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार अपवाद मात्र हैं । उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक तथा जीवात्मा को श्रणु-परिमाण माना है । चार्वाक ने चैतन्य 1. मुण्डक० 1.1.6; वंशे० 7.1.22; न्यायमंजरी पृष्ठ 468 (विजय ० ) ; प्रकरण पं० पृष्ठ 158. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy