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________________ 98 गणधरवाद (4) निम्बार्क-सम्मत द्वैताद्वैत-भेदाभेदवाद : ___ प्राचार्य निम्बार्क के मत में परमात्मा के दो स्वरूप हैं : चित् और अचित् । ये दोनों ही परमात्मा से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। जिस प्रकार वृक्ष और उसके पत्र, दीपक और उसके प्रकाश में भेदाभेद है, उसी प्रकार परमात्मा में भी चित् और अचित् इन दोनों का भेदाभेद है । जगत् सत्य है, क्योंकि यह परमात्मा की शक्ति का परिणाम है । जीव परमात्मा का अंश है और अंश तथा अंशी में भेदाभेद होता है। ऐसे जीव अनेक हैं, नित्य हैं, अणु-परिमाण हैं। अविद्या और कर्म के कारण जीव के लिए संसार का अस्तित्व है। रामानुज की मान्यता के समान मुक्ति में भी जीव और परमात्मा में भेद है, फिर भी जीव अपने को परमात्मा से अभिन्न समझता है। (5) मध्वाचार्य का भेदवाद : वेदान्त-दर्शन में समाविष्ट होने पर भी मध्वाचार्य का दर्शन वस्तुतः अद्वैती न होकर द्वती ही है । रामानुज आदि प्राचार्यों ने जगत् को ब्रह्म का परिणाम माना है, अर्थात् ब्रह्म को उपादान कारण स्वीकार किया है और इस प्रकार अद्वैतवाद की रक्षा की है, किन्तु मध्वाचार्य ने परमात्मा को निमित्त कारण मानकर प्रकृति को उपादान कारण प्रतिपादित किया है। रामानुज आदि प्राचार्यों ने जीव को भी परमात्मा का ही कार्य, परिणाम, अंश आदि माना है और इस प्रकार दोनों में अभेद बताया है, परन्तु मध्वाचार्य ने अनेक जीव मानकर उन में परस्पर भेद माना है और साथ ही ईश्वर से भी उन सबका भेद स्वीकार किया है। इस तरह मध्वाचार्य ने समस्त उपनिषदों की अद्वैत-प्रवृत्ति को बदल डाला है । उनके मत में जीव अनेक हैं, नित्य हैं और अणु-परिमाण हैं । जिस प्रकार ब्रह्म सत्य है, उसी प्रकार जीव भी सत्य है, परन्तु वे परमात्मा के अधीन हैं। (6) विज्ञानभिक्षु का अविभागाद्वैत : विज्ञानभिक्षु का मत है कि, प्रकृति और पुरुष (जीव) ये दोनों ब्रह्म से भिन्न होकर विभक्त नहीं रह सकते, किन्तु वे उसमें अन्तहित-गुप्त-अविभक्त हैं, अतः उनके मत का नाम 'अविभागाद्वैत' है । पुरुष या जीव अनेक हैं, नित्य हैं, व्यापक हैं । जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध पिता-पुत्र के सम्बन्ध के समान है। वह अंशांशि-भाव युक्त है। जन्म से पूर्व पुत्र पिता में ही था, उसी प्रकार जीव भी ब्रह्म में था, ब्रह्म से ही वह प्रकट होता है तथा प्रलय के समय ब्रह्म में ही लीन हो जाता है । ईश्वर की इच्छा से जीव और प्रकृति में सम्बन्ध स्थापित होता है और जगत् की उत्पत्ति होती है। (7) चैतन्य का अचित्य भेदाभेदवाद : श्री चैतन्य के मत में श्रीकृष्ण ही परम ब्रह्म हैं । उनकी अनन्त शक्तियों में जीव-शक्ति भी सम्मिलित है और उस शक्ति से अनेक जीवों का आविर्भाव होता है । ये जीव अणु-परिमाण हैं. ब्रह्म के अंश रूप हैं और ब्रह्म के अधीन हैं । जीब और जगत् परम-ब्रह्म से भिन्न हैं अथवा अभिन्न हैं, यह एक अचिन्त्य विषय है, इसीलिए चैतन्य के मत का नाम 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' है । भक्त के जीवन का परम ध्येय यह माना गया है कि, जीव परम-ब्रह्म-रूप कृष्ण से भिन्न होने पर भी उसकी भक्ति में तल्लीन होकर यह मानने लग जाए कि वह अपने स्वरूप को विस्मृत कर कृष्ण-स्वरूप हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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