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प्रस्तावना
अतः अनेक जीव माया रूप है, मिथ्या है | इसलिए उन्ह ब्रह्म का विवतं कहा जाता है । यदि जीव का यह अज्ञान दूर हो जाए तो ब्रह्मतादात्म्य की अनुभूति हो, अर्थात् जीव-भाव दूर होकर ब्रह्मभाव का अनुभव हो । शंकर के इस मत को 'केवलाद्वैतवाद' इसलिए कहा जाता है कि, वे केवल एक अद्वैत ब्रह्म-आत्मा को ही सत्य मानते हैं, शेष समस्त पदार्थों को माया- रूप अथवा मिथ्या मानते हैं । जगत् को मिथ्या स्वीकार करने के कारण उस मत को 'मायावाद' भी कहा गया है जिसका दूसरा नाम 'विवर्तवाद' भी है ।
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(2) भास्कराचार्य का सत्योपाधिवाद :
भास्कराचार्य यह मानते हैं कि अनादिकालीन सत्य उपाधि के कारण निरुपाधिक ब्रह्म जीव-रूप में प्रकट होता है । जिस क्रिया के वश नित्य, शुद्ध, मुक्त, कूटस्थ ब्रह्म मूर्त्त पदार्थों में प्रवेश कर अनेक जीवों के रूप में प्रकट होता है और उन जीवों का आधार बनता है, उस क्रिया को 'उपाधि' कहते हैं । इस उपाधि के सम्बन्ध के कारण ब्रह्म जीव-रूप में प्रकट होता है, अतः यह जीव ब्रह्म का प्रोपाधिक स्वरूप है, यह बात स्वीकार करनी पड़ती है । इस प्रकार जीव और ब्रह्म में वस्तुतः प्रभेद होते हुए भी जो भेद है, वह उपाधि मूलक है, किन्तु जीव ब्रह्म का विकार नहीं है । जब वह निरुपाधिक होता है, उसे ब्रह्म कहते हैं और सोपाधिक होने पर उसे जीव कहते हैं । ब्रह्म के सोपाधिक रूप अनेक होते हैं, अतः अनेक जीवों की उपपत्ति में कोई बाधा नहीं आती । उपाधि को सत्य रूप मानने के कारण और इसी उपाधि से जगत् तथा अनेक जीवों की उपपत्ति सिद्ध करने के कारण भास्कराचार्य के मत को 'सत्योपाधिवाद कहते हैं । इससे विपरीत शंकराचार्य उपाधि को मिथ्या मानते हैं, उनका मत 'मायावाद' कहलाता है । भास्कराचार्य के मतानुसार ब्रह्म अपनी परिणाम - शक्ति अथवा भोग्यशक्ति के कारण जगत् रूप में परिणत होता है, अतः जगत् सत्य है, मिथ्या नहीं । इस प्रकार भास्कराचार्य ने जगत् के सम्बन्ध में शंकराचार्य के विवर्तवाद के स्थान पर प्राचीन परिणामवाद का समर्थन किया और उसके पश्चात् रामानुजाचार्य आदि अन्य श्राचार्यों ने भी उसी का अनुसरण किया ।
(3) रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद :
सूक्ष्म चित् तथा
रामानुज के मतानुसार परमात्मा ब्रह्म कारण भी है और कार्य भी । चित् से विशिष्ट ब्रह्म कारण है और स्थूल चित् तथा प्रचित् से विशिष्ट ब्रह्म कार्य है । इन दोनों विशिष्टों का ऐक्य स्वीकृत करने के कारण रामानुज का मत विशिष्टाद्वैत' कहलाता है । कारण-रूप ब्रह्म परमात्मा के सूक्ष्म चिद्रूप के विविध स्थूल परिणाम ही अनेक जीव हैं और परमात्मा का सूक्ष्म प्रचिद्रूप स्थूल जगत् के रूप में परिणमन करता है । रामानुज के अनुसार जीव अनेक हैं, नित्य हैं और प्रणु-परिमाण हैं । जीव और जगत् दोनों ही परमात्मा के कार्यपरिणाम हैं, अतः वे मिथ्या नहीं प्रत्युत सत्य हैं । मुक्ति में जीव परमात्मा के समान होकर उस के ही निकट रहता है । रामानुज की मान्यता कि, जीव और परमात्मा दोनों पृथक् हैं, एक कारण है और दूसरा कार्य; किन्तु कार्य कारण का ही परिणाम है, अतः इन दोनों में अद्वैत है ।
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