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________________ 96 वेदान्त दर्शन के समान अन्य भी वैदिक दर्शन हैं किन्तु उन्होंने वेदान्त की भाँति उपनिषदों को ही आधारभूत मानकर अपने दर्शन की रचना नहीं की । रूढि के कारण शास्त्र अथवा आगम के स्थान पर वेद और उपनिषदों को मानते हुए भी उन दर्शनों में उपनिषदों के अद्वैत पक्ष को आदर नहीं मिला, परन्तु वहाँ वेदेतर जैन दर्शन के समान आत्मा को तत्त्वतः अनेक माना गया है । ऐसे वैदिक दर्शन न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग और पूर्व मीमांसा हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में इस द्वितीय पक्ष को ही महत्त्व देकर जीव को नाना या अनेक सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । यह पक्ष जैनों को भी मान्य है । वेदान्त पक्ष और वेदान्तेतर पक्ष में मौलिक भेद यह है कि, वेदान्त-मत में एक आत्मा ही मौलिक तत्त्व है और संसार में दिखाई देने वाली अनेक आत्माएँ उस एक मौलिक आत्मा केही कारण से हैं, वे सब स्वतन्त्र नहीं हैं । इसके विपरीत इतर पक्ष का कथन है कि, संसार में दृष्टिगोचर होने वाली अनेक आत्मानों में प्रत्येक स्वतन्त्र आत्मा है, वे अपने अस्तित्व के लिए तत्त्वतः किसी अन्य श्रात्मा पर आश्रित नहीं हैं । गणधरवाद वेद और उपनिषदों के अनुयायियों को इन ग्रन्थों की विचारधारा स्वीकार करनी चाहिए अर्थात् अद्वैत पक्ष को मान्यता देनी चाहिए, किन्तु वेदान्त के अतिरिक्त अन्य वैदिकदर्शन ऐसा नहीं करते । उन्होंने तत्त्वतः अनेक आत्माएँ स्वीकार कीं, इससे उन पर वेद- बाह्य विचार-धारा का प्रभाव सूचित होता है । इसमें आश्चर्य नहीं कि प्राचीन सांख्य-परम्परा और जैन- परम्परा ने इस विषय में मुख्य भाग लिया होगा । इतिहासकार इस तथ्य से अच्छी तरह से परिचित हैं कि प्राचीन काल में सांख्य भी अवैदिक दर्शन माना जाता था परन्तु बाद में उसे वैदिक रूप दे दिया गया । इस प्रासंगिक चर्चा के उपरान्त अब हम इस बात पर विचार करेंगे कि ब्रह्म सूत्र की व्याख्या करते हुए अद्वैत ब्रह्म के साथ अनेक जीवों की उपपत्ति करने में कौन-कौन से मतभेद हुए । (अ) वेदान्तियों के मतभेद 1 (1) शंकराचार्य का विवर्तवाद : शंकराचार्य का कथन है कि मूल रूप में ब्रह्म एक होने पर भी अनादि अविद्या के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दृग्गोचर होता है। जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है वैसे ही ग्रज्ञान के कारण ब्रह्म में अनेक जीवों की प्रतीति होती है । रस्सी सर्प रूप में उत्पन्न नहीं होती, न ही वह सर्प को उत्पन्न करती है, फिर भी उसमें सर्प का भान होता है । इसी प्रकार ब्रह्म अनेक जीवों के रूप में उत्पन्न नहीं होता, अनेक जीवों को उत्पन्न भी नहीं करता, तथापि अनेक जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसका कारण अविद्या या माया है, Jain Education International 1. इन मतभेदों का प्रदर्शन श्री गो० ह० भट्ट-कृत ब्रह्मसूत्राणुभाष्य के गुजराती भाषान्तर की प्रस्तावना का मुख्य आधार लेकर किया गया है। उनका आभार मानता हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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