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प्रस्तावना
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के साथ सम्बन्धित होने के कारण मूर्त है। इसके विपरीत अन्य सब दर्शनों ने चेतन को अमूर्त माना है। उपसंहार :
समस्त भारतीय दर्शनों ने यह निष्कर्ष स्वीकार किया है कि प्रात्मा का स्वरूप चतन्य है। नास्तिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध चार्वाक-दर्शन ने भी प्रात्मा को चेतन ही कहा है। उसमें और दूसरे दर्शनों में मतभेद यह है कि, चार्वाक के अनुसार प्रात्मा चेतन होते हुए भी शाश्वत तत्त्व नहीं, वह भूतों से उत्पन्न होता है । बौद्ध भी चेतन तत्त्व को अन्य दर्शनों की भाँति नित्य नहीं मानते, अपितु चार्वाकों के समान जन्य मानते हैं । फिर भी बौद्धों और चार्वाकों में एक महत्वपूर्ण भेद है । बौद्धों की मान्यता के अनुसार चेतन तो जन्य है परन्तु चेतन-सन्तति अनादि है । चार्वाक प्रत्येक जन्य चेतन को सर्वथा भिन्न या अपूर्व ही मानते हैं। बौद्ध प्रत्येक जन्य चंतन्य-क्षण के पूर्व-जनक क्षण से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न होने का निषेध करते हैं । बौद्ध-दर्शन में चार्वाक का उच्छेदवाद किंवा उपनिषदों और अन्य दर्शनों का प्रात्म शाश्वतवाद मान्य नह हों, अत: वे आत्म-सन्तति को अनादि मानते हैं, आत्मा को अनादि नहीं मानते । सांख्य-योग, न्यायवैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा और जैन ये समस्त दर्शन प्रात्मा को अनादि स्वीकार करते हैं, परन्तु जैन और पूर्व मीमांसा दर्शन का भाट्ट-सम्प्रदाय आत्मा को परिणामी नित्य मानते हैं । शेष सभी दर्शन उसे कूटस्थ नित्य मानते है ।
आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने वाले, उसमें किसी भी प्रकार के परिणाम का निषेध करने वाले, संसार और मोक्ष को तो मानते ही हैं और आत्मा को परिणामी नित्य मानने वाले भी संसार व मोक्ष का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, अत: आत्मा को कूटस्थ या परिणामी मानने पर भी संसार और मोक्ष के विषय में किसी भी प्रकार का मत-भेद नहीं है। वे दोनों हैं ही। यह एक अलग प्रश्न है कि उन दोनों की उपपत्ति कैसे की जाए।
प्रात्मा के सामान्य स्वरूप चैतन्य का विचार करने के उपरान्त उसके विशेष स्वरूप का विचार करना अब सरल है।
3. जीव अनेक हैं इस ग्रन्थ में (गा० 1581-85) यह पश्न स्वीकार किया गया है कि जीव अनेक हैं और 'प्रात्माद्वैत' अर्थात् 'प्रात्मा एक ही है, इस पक्ष का निराकरण किया गया है। हम यह देख चुके हैं कि वेद से लेकर उपनिषदों तक की विचारधारा में मुख्यतः अद्वैत पक्ष का ही अवलम्बन लिया गया है, अतः उपनिषदों के आधार पर जब ब्रह्म-सूत्र में वेदान्त-दर्शन की व्यवस्था की गई, तब भी उस में अद्वैत के सिद्धान्त को ही पुष्ट किया गया। किन्तु संसार में जो अनेक जीव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उनका निषेध करना सरल नहीं था, अतः हम देखते हैं कि कि तत्त्वतः एक प्रात्मा मानकर भी उस एक अद्वैत प्रात्मा अथवा ब्रह्म के साथ संसार में प्रत्यक्ष दृग्गोचर होने वाले अनेक जीवों का क्या सम्बन्ध है, इस बात की व्याख्या करना आवश्यक था। ब्रह्मसूत्र के टीकाकारों ने यह स्पष्टीकरण किया भी है, किन्तु इसमें एक मत स्थिर नहीं हो सका, अतः व्याख्या-भेद के कारण वेदान्त-दर्शन की अनेक परम्पराएँ बन गई हैं।
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