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गणधरवाद
अर्थात् उसे भौतिक और अभौतिक का मिश्र रूप कहना चाहिए । इस प्रकार बौद्ध-सम्मत पुद्गल उपनिषत् की भान्ति केवल चेतन अथवा भौतिक-वादियों की मान्यता के समान केवल अचेतन नहीं है । इस विषय में भी भगवान बुद्ध का मध्यम मार्ग है। मिलिन्दप्रश्न 2.37, निशुद्धिमार्ग 18.25-35, संयुक्तनिकाय 1.135
(8) दार्शनिकों का प्रात्मवाद
उपनिषत् काल के पश्चात् भारतीय विविध वैदिक-दर्शनों की व्यवस्था हुई है, अतः अब इस विषय का निर्देश करना भी आवश्यक है। उपनिषद् चाहे दीर्घ-काल की विचारपरम्परा को व्यक्त करते हों, किन्तु उनमें एक सूत्र सामान्य है। भूतवाद की प्रधानता मानी जाय या प्रात्मवाद की, किन्तु यह बात निश्चित है कि विश्व के मूल में किसी एक ही वस्तु की सत्ता है, अनेक वस्तुओं की नहीं । यह एक-सूत्रता समस्त उपनिषदों में दृष्टिगोचर होती है। ऋग्वेद (10.129) में उसे 'तदेक' कहा गया था, किंतु उसका नाम नहीं बताया गया था। ब्राह्मणकाल में उस एक तत्त्व को प्रजापति की संज्ञा दी गई । उपनिषदों में उसे सत्, असत्, प्रकाश, जल, वायु, प्राण, मन, प्रज्ञा, आत्मा, ब्रह्म आदि विविध नामों से प्रकट किया गया, किन्तु उनमें विश्व के मूल में अनेक तत्त्वों को स्वीकार करने वाली विचारधारा को स्थान नहीं मिला। जब दार्शनिक-सूत्रों की रचना हुई, तब वेदान्त-दर्शन के अतिरिक्त किसी भी भारतीय वैदिक अथवा अवैदिक दर्शन में अद्वैतवाद को पाश्रय मिला हो, यह ज्ञात नहीं होता । अतः हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चाहे उपनिषदों के पहले की अवैदिक-परम्परा का साहित्य उपलब्ध न हुआ हो, परन्तु अद्वैत-विरोधि परम्परा का अस्तित्व अति प्राचीन काल से अवश्य था। इस परम्परा के अस्तित्व के आधार पर ही वेद व ब्राह्मण-ग्रन्थों में प्रतिपादित वैदिक कर्म-काण्ड के स्थान पर स्वयं वेदानुयायियों (वैदिकों) ने भी ज्ञान-मार्ग और आध्यात्मिक-मार्ग को ग्रहण किया और इसी परम्परा की विद्यमानता के कारण वैदिक-दर्शनों ने अद्वैत-मार्ग को त्याग कर द्वैत-मार्ग अथवा बहुतत्त्ववादी-परम्परा को स्थान दिया। वेद-विरोधी श्रमण-परम्परा में जैन परम्परा, आजीवक-परम्परा, बौद्ध-परम्परा, चार्वाक-परम्परा आदि अनेक परम्पराएँ अस्तित्व में आईं, किंतु वर्तमानकाल में जैन और बौद्ध-परम्परा ही विद्यमान है। हम यह देख चुके हैं कि, अद्वैत चेतन प्रात्मा अथवा ब्रह्म तत्त्व को स्वीकार कर उपनिषद् विचारधारा पराकाष्ठा को पहुंची। किंतु वैदिक-दर्शनों में न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और पूर्व मीमांसा केवल अद्वैत आत्मा को ही नहीं अपितु जड़-चेतन दोनों प्रकार के तत्त्वों को मौलिक मानते हैं। यही नहीं, उन्होंने प्रात्म-तत्त्व को भी एक न मान कर बहुसंख्यक स्वीकार किया है। उक्त सभी दर्शनों ने प्रात्मा को उपनिषदों की भाँति चेतन प्रतिपादित किया है, अर्थात् प्रात्मा को उन्होंने भौतिक नहीं माना है।
(9) जैन मत :
इन सब वैदिक-दर्शनों के समान जैन-दर्शन में भी प्रात्मा को चेतन तत्त्व स्वीकार किया गया है और उसे अनेक माना गया है, किन्तु यह चेतन तत्त्व अपनी संसारी अवस्था में बौद्ध-दर्शन के पुद्गल के समान मूर्त्तामूर्त है । वह ज्ञानादि गुण की अपेक्षा से अमृत है और कर्म
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