________________
प्रस्तावना
93
इस प्रकार कर्म और विपाक अपने-अपने हेतुओं पर आश्रित होकर प्रवृत्त होते हैं। उनमें पहला स्थान किसका है, यह बीज और वृक्ष के प्रश्न की भाँति नहीं बताया जा सकता। अर्थात वीज और वृक्ष के समान कर्म एवं विपाक अनादि-काल से एक दूसरे पर आश्रित चले पा रहे हैं।
... पनश्च, यह भी नहीं कहा जा सकता कि कर्म और विपाक की यह परम्परा कब निरुद्ध होगी । इस बात को न जानने से तैथिक पराधीन होते हैं।
तत्त्व-जीव के विषय में कुछ लोग शाश्वतवाद का और कुछ उच्छेदवाद का अवलम्बन लेते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण अपनाते हैं।
भिन्न-भिन्न दृष्टियों के बन्धन में बद्ध होकर वे तृष्णारूपी स्रोत में फँस जाते हैं और उसमें फँस जाने के कारण वे दुःख से मुक्त नहीं हो सकते ।
इस तत्त्व को समझ कर बुद्ध-श्रावक गम्भीर, निपुण और शून्यरूप प्रत्यय का ज्ञान प्राप्त करता है।
विपाक में कर्म नहीं है प्रोर कर्म में विपाक नहीं है, ये दोनों एक दूसरे से रहित हैं, फिर भी कर्म के बिना फल या विपाक होता ही नहीं।
जिस प्रकार सूर्य में अग्नि नहीं है; मणि में नहीं है, उपलों (गोबर) में भी नहीं है और वह इनसे भिन्न पदार्थों में भी नहीं है, किन्तु जब इन सबका समुदाय होता है तब वह उत्पन्न होती है उसी प्रकार कर्म का विपाक कर्म में उपलब्ध नहीं होता और कर्म के बाहर भी नहीं मिलता तथा विपाक में भी कर्म नहीं है। इस प्रकार कर्म फलशून्य है, कर्म में फल का अभाव है, फिर भी कर्म के आधार पर ही फल मिलता है।
कोई देव या ब्रह्म इस संसार का कर्ता नहीं है। हेतु समुदाय का आश्रय ले कर शुद्ध धर्मों को ही प्रवृत्ति होती है । विशुद्धिमार्ग 19.0
. भदन्त नागसेन ने रथ की उपमा देकर बताया है कि, पुद्गल का अस्तित्व केश, दान्त आदि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान इन सब की अपेक्षा से है, किन्तु कोई पारनार्थिक तत्त्व नहीं । मिलिन्दप्रश्न 2.4. सू० 298 स्वयं बुद्ध घोष ने भी कहा है:
यथेव चक्खु विचारणं ममोधातु अनन्तरं । न चेव प्रागतं नापि न निन्वतं अनन्तरं ॥ तथैव परिसंधिम्हि वत्तते चित्तसंतति ।
पुरिमं भिज्जति चित्तं पच्छिमं जायते ततो ॥ जिस प्रकार मनोधातु के पश्चात् चक्षुविज्ञान होता है-वह कहीं से प्राया तो नहीं, फिर भी यह बात नहीं कि वह उत्पन्न नहीं हुग्रा; उसी प्रकार जन्मान्तर में चित्त-सन्तति के विषय में समझना चाहिए कि, पूर्व-चित्त का नाश हुआ है और उस से नये चित्त की उत्पत्ति हुई है। विशुद्धिमार्ग 19.23
भगवान् बुद्ध ने इस पुद्गल को क्षणिक और नाना-अनेक कहा है । यह चेतन तो है किन्तु मात्र चेतन ही है, ऐसी बात नहीं। वह नाम और रूप इन दोनों का समुदाय रूप है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org