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________________ 92 गणधरवाद की शृखला में बद्ध हैं। पूर्वावस्था के सब संस्कार उत्तरावस्था में आ जाते हैं, अतः इस समय जो पूर्व है वही उत्तर रूप में अस्तित्व में आता है। उत्तर पूर्व से न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु वह अव्याकृत है। भिन्न मानने से उच्छेदवाद और अभिन्न कहने से शाश्वतवाद मानना पड़ता है । भगवान् बुद्ध को ये दोनों ही वाद इष्ट नहीं थे, अतः ऐसे विषयों के सम्बन्ध में उन्होंने अव्याकृतवाद की शरण ली। बद्धघोष ने इसी विषय को पौराणिको का वचन कह कर प्रतिपादित किया है : कम्मस्स कारको नस्थि विपाकस्स च वेदको । सुद्धधम्मा पवत्तन्ति एवेतं सम्मदस्सनं ॥ एवं कम्मे विपाके च वत्तमाने सहेतुके । बीजरुक्खाकानं व पुव्वा कोटि न नायति ॥ अनागते पि संसारे अप्पवत्तं न दिस्सति । एतमत्थं अनाय तित्थिया प्रसयंवसी ॥ सत्तसञ्ज गहेत्वान सस्सतुच्छेदवस्सिनो । द्वास ट्ठिदिट्ठि गण्हन्ति असमञ विरोधिता ।। दिट्ठिबन्धन-बद्धा ते तण्हासोतेन वय्हरे । सण्हासोतेन-वम्हन्ता न ते दुक्खा पमुच्चरे ॥ एवमेतं अभिज्ञाय भिक्ख बुद्धस्स सावको । गम्भीरं निपुणं सुझं पच्चयं पटिविज्झति ॥ कम्म नस्थि विपाकम्हि पाको कम्मे न विज्जति । अचमनं उभो सुआ न च कम्मं विना फलं ॥ यथा न सुरिये अम्गि न मरिणम्हि न गोमये । न तेसि बहि सो अस्थि सम्भारेहि च जायति ।। तथा न अन्ते कम्मस्स विपाको उपलब्भति । बहिद्धावि न कम्मस्स न कम्मं तत्थ विज्जति ॥ फलेन सुझं तं कम्मं फलं कम्मे न विन्जति । कम्मं च खो उपादाय ततो निव्वत्तती फलं ।। न हेत्थ देवो ब्रह्मा वा संसारस्सस्थिकारको । सुद्धधम्मा पवतंति हेतुसंभारपच्चया ॥ इसका तात्पर्य यह है कि: कर्म को करने वाला कोई नहीं है, विपाक (कर्म के फल) का अनुभव करने वाला कोई नहीं है, किन्तु शुद्ध धर्मों को ही प्रवृत्ति होती है, यही सम्यग्दर्शन है। 1. न्यायावतारवातिकवृत्ति की प्रस्तावना देखें-पृष्ठ 6; मिलिन्दप्रश्न 2.25-33, पृष्ठ 41-52. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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