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प्रस्तावना
स्थान नहीं है । हो सकता है कि कोई व्यक्ति इस बात के लिये उत्सुक हो कि, पूर्वोक्त मनोमय आत्मा के साथ बौद्ध सम्मत पुद्गल अर्थात् देहधारी जीव जिसे चित्त भी कहा गया है, की तुलना की जाए। किन्तु वस्तुतः इन दोनों में भेद है । बौद्ध-मत में मन को अन्तःकरण माना गया है और इन्द्रियों की भाँति चित्तोत्पाद में यह भी एक कारण है । अतः मनोमय आत्मा से उसकी तुलना शक्य नहीं है, परन्तु विज्ञानात्मा से उसकी प्रांशिक तुलना सम्भव है । विज्ञानात्मा सतत जागरित नहीं होता, न ही सतत संवेदक होता है। मगर सुप्तावस्था में अथवा मृत्यु के समय में वह लीन हो जाता है और बाद में पुनः संवेदक बन जाता है। पुद्गल के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। सुप्तावस्था अथवा मृत्यु के समय उसका भी निरोध होता है । इस तुलना को प्रशिक इसलिए कहा गया है कि, विज्ञानात्मा ही पुनः जागरित होता है, यह बात मानली गई थी । किन्तु बुद्ध ने तो जागरित होने वाले पुद्गल अथवा मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले पुद्गल के विषय में यह 'वही है' या ' भिन्न है' इन दोनों विधानों में से किसी को भी उचित स्वीकार नहीं किया । यदि वे यह कहें कि उन्हीं पुद्गलों ने पुनः जन्म ग्रहण किया तो उपनिषत् सम्मत शाश्वतवाद का समर्थन हो जाता है जो कि उन्हें अभीष्ट नहीं है और यदि वे यह बात कहें कि 'भिन्न है' तो भौतिकवादियों के उच्छेदवाद को समर्थन प्राप्त होता है, वह भी बुद्ध के लिए इष्ट नहीं । अतः बुद्ध केवल इतना ही प्रतिपादन करते हैं कि, प्रथम चित्त था, इसीलिए दूसरा उत्पन्न हुआ । उत्पन्न होने वाला वही नहीं है और उससे भिन्न भी नहीं है किन्तु वह उसकी धारा में ही है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि, बुद्ध का उपदेश था कि, जन्म, जरा, मरण श्रादि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते किन्तु वे सब अमुक कारणों से उत्पन्न होते हैं । बुद्ध-मत में जन्म, जरा, मरण इन सब का अस्तित्व तो है, किन्तु बौद्ध यह स्वीकार नहीं करते कि, इन सबका कोई स्थायी आधार भी है । तात्पर्य यह है कि, बुद्ध को जहाँ चार्वाक का देहात्मवाद अमान्य है वहाँ उपनिषत् सम्मत सर्वान्तर्यामी, नित्य, ध्रुव, शाश्वत स्वरूप आत्मा भी श्रमान्य है । उनके मत में आत्मा शरीर से प्रत्यन्त भिन्न भी नहीं है और शरीर से भिन्न भी नहीं है । उन्हें चार्वाक सम्मत भौतिकवाद एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषदों का कूटस्थ श्रात्मवाद भी एकान्त दिखाई देता है । उनका मार्ग तो मध्यम मार्ग है जिसे वे 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद' - अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु उत्पन्न हुई, कहते हैं । वह वाद न तो शाश्वतवाद है और न ही उच्छेदवाद, उसे प्रशाश्वतानुच्छेदवाद का नाम दिया जा सकता है ।
बुद्धमत के अनुसार संसार में सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्ध है, मुक्ति भी है - ये सब कुछ है, किन्तु इन सबका कोई स्थिर आधार नहीं है, नित्व नहीं है । ये समस्त अवस्थाएँ अपने पूर्ववर्ती कारणों से उत्पन्न होती रहती हैं और एक नवीन कार्य को उत्पन्न करके नष्ट होती रहती हैं। इस प्रकार संसार का चक्र चलता रहता है । पूर्व का सर्वथा उच्छेद अथवा उसका ध्रौव्य दोनों ही उन्हें मान्य नहीं हैं । उत्तरावस्था पूर्वावस्था से नितान्त असम्बद्ध है, अपूर्व है, यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती; क्योंकि दोनों कार्य-कारण
दीघनिकाय ब्रह्मजालसुत्त, संयुत्तनिकाय
1.
अंगुत्तरनिकाय 3;
संयुत्तनिकाय 12-36; 12.17, 24 विसुद्धिमग्ग 17.161-174.
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