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________________ 112 जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसी रूपक के आधार पर कर्म और जीव के परस्पर बन्ध और उनकी कार्यकारिता का वर्णन किया है । वस्तुतः न्याय - ६ शेषिकादि भी इसी प्रकार यह बात कह सकते हैं कि, जीव तथा जड़ परस्पर मिले हुए हैं और सापेक्ष हो कर ही प्रवृत्त होते हैं । इसी कारण संसार रूपी रथ गतिमान होता है, अन्यथा नहीं । अकेला जड़ अथवा अकेला चेतन संसार का रथ चलाने में समर्थ नहीं है। जड़ और चेतन दोनों संसार रूपी रथ के दो चक्र हैं । मायावादी वेदान्तियों ने अद्वैतब्रह्म मानकर भी यह स्वीकार किया है कि, अनिर्वचनीय माया के बिना संसार की घटना अशक्य है, अतः ब्रह्म और माया के योग से ही संसार-चक्र की प्रवृत्ति होती है । सभी दर्शनों की सामान्य मान्यता है कि, संसार-चक्र की प्रवृत्ति दो परस्पर विरोधी प्रकृति वाले तत्त्वों के संसर्ग से होती है । इन दोनों के नाम में भेद हो सकता है किंतु सूक्ष्मता से विचार करने पर तात्विक भेद प्रतीत नहीं होता । गणधरवाद (ई) मोक्ष का स्वरूप बन्ध - चर्चा के समय यह बताया गया है कि, अनात्म में ग्रात्माभिमान बन्ध कहलाता है। इससे यह फलित होता है कि, अनात्म में आत्माभिमान का दूर होना ही मोक्ष है । इस विषय में सभी दार्शनिक एकमत है । अब इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि मोक्ष अथवा मुक्त आत्मा का स्वरूप किस प्रकार का है ? सभी दार्शनिको का मत है कि, मोक्षावस्था इन्द्रियग्राह्य नहीं, वचनगोचर नहीं, मनोग्राह्य नहीं तथा तर्क-ग्राह्य भी नहीं है । कठोपनिषद् में स्पष्टरूपेण कहा है कि, वाणी, मन, अथवा चक्षु से इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, केवल सूक्ष्म- बुद्धि से इसे ग्रहण किया जा सकता है । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि तर्क-प्रपंच सूक्ष्म बुद्धि की कोटि में नहीं आता । तप एवं ध्यान से एकाग्र हुम्रा विशुद्ध सत्त्व इसे ग्रहण कर सकता है । नागसेन के कथनानुसार बौद्ध-मत में भी निर्वाण तो है किन्तु उसका स्वरूप ऐसा नहीं है कि, जिसे संस्थान, वय और प्रमाण, उपमा, कारण, हेतु अथवा नय से बताया जा सके। जिस प्रकार यह प्रश्न स्थापनीय है - इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता — कि समुद्र में कितना पानी है और उसमें कितने जीव रहते हैं ? उसी प्रकार निर्वाण विषयक उक्त प्रश्न का उत्तर देना भी सम्भव नहीं है । लौकिक दृष्टि वाले पुरुष ' के पास इसे जानने का कोई साधन नहीं है । यह न तो चक्षुविज्ञान का विषय है, न कान का, न नासिका का, न जिह्वा का और न ही स्पर्श का विषय है । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि निर्वाण की सत्ता ही नहीं है । वह विशुद्ध मनोविज्ञान का विषय है । इस मनोविज्ञान की विशुद्धता का कारण उसका निरावरण होना है । उपनिषद् में जिसे 1. 2. 3. 4. मुण्डकोपनिषद् 3.1.8 5. मिलिन्दप्रश्न 4, 8.66-67; पृष्ठ 309 6. मिलिन्दप्रश्न 4.7.15, पृष्ठ 265, उदान 71 समयसार 340-341 कठ० 2.6, 12; 1.3.12 कठ० 2.8.9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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