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________________ 82 गणधरवाद इन्द्रियों को ही प्रात्मा मानने लगें। बृहदारण्यक उपनिषद् में इन्द्रियों की प्रतियोगिता का उल्लेख है और उनके इस दृढ़ निर्णय का भी वर्णन है कि वे स्वयं ही समर्थ हैं, अतः हम यह भी मान सकते हैं कि कुछ लोगों की प्रवृत्ति इन्द्रियों को आत्मा समझने की रही होगी। दार्शनिक-सूत्र-टीका-काल में इस प्रकार के इन्द्रियात्मवादियों का खण्डन भी किया गया है, अतः यह निश्चित है कि किसी न किसी व्यक्ति ने इस सिद्धान्त को अवश्य स्वीकार किया होगा। प्राणात्मवाद के समर्थकों ने इस इन्द्रियात्मवाद के विरुद्ध जो युक्तियाँ दीं; वे हमें बृहदारण्यक में दृष्टिगोचर होती हैं । उनमें कहा गया है कि, मृत्यु समस्त इन्द्रियों को थका देती है किन्तु उनके बीच रहने वाले प्राण को वह कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकती, अतः इन्द्रियों ने प्राण का रूप ग्रहण किया, इसीलिए इन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं। प्राचीन जैन आगमों में जिन दस प्राणों का वर्णन है, उनमें इन्द्रियों को भी प्राण गिना गया है । इससे भी उपर्युक्त बात का समर्थन होता है । इस प्रकार इन्द्रियात्मवाद का समावेश प्राणात्मवाद में हो जाता है। सांख्य-सम्मत वैकृतिक बन्ध की व्याख्या करते हुए वाचस्पति मिश्र ने इन्द्रियों को पुरुष मानने वालों का उल्लेख किया है, वह भी इन्द्रियात्मवादियों के विषय में समझा जाना चाहिए। इस प्रकार प्रात्मा को यदि देहरूप अथवा भूतात्मक अथवा प्राणरूप अथवा इन्द्रिय-रूप माना जाए, तब भी इन सब मतों में प्रात्मा अपने भौतिक रूप में ही हमारे सामने उपस्थित होती है । इनसे उसका अभौतिक रूप प्रकट नहीं होता, अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि इन सब मतों के अनुसार हमें आत्मा अपने व्यक्त-रूप में दृष्टिगोचर होती है। वह इन्द्रिय-ग्राह्य है, यह बात सामान्यत: इन सब मतों में मानी गई है । आत्मा के इस रूप को सन्मुख रखते हुए ही उसका विश्लेषण किया गया है । इसीलिए उसके अव्यक्त अथवा अभौतिक स्वरूप की ओर इनमें से किसी का ध्यान नहीं गया। परन्तु ऋषियों ने जिस प्रकार विश्व के भौतिक रूप के पार जाकर एक अव्यक्त तत्त्व को माना, उसी प्रकार उन्होंने प्रात्मा के विषय में यह स्वीकार किया कि वह भी अपने पूर्ण रूप में ऐसा नहीं है जिसे आँखों द्वारा देखा जा सके । जब से उनकी ऐसी प्रवृत्ति हुई, तब से आत्म-विचारणा ने नया रूप धारण किया । जब तक आत्मा का भौतिक रूप ही स्वीकार किया जाए तब तक इस लोक को छोड़कर उसके परलोक-गमन की मान्यता, अथवा परलोक-गमन में कारण-भूत कर्म की मान्यता या पुण्य-पाप की मान्यता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, किन्तु जब आत्मा को एक स्थायी तत्त्व के रूप में मान लिया जाए, तब इन सब प्रश्नों पर विचार करने का अवसर स्वयमेव उपस्थित 1. 2. बृहदारण्यक 1.5.21 बहादरण्यक 1.5.21 सांख्य का044 ऋग्वेद 10.129 4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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