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________________ प्रस्तावना इसके अतिरिक्त उपनिष से भी प्राचीन ऐतरेय-प्रारण्यक में प्रात्मा के विकास के प्रदर्शक जो सोपान दिखाये गये हैं, उनसे भी यह बात प्रमाणित होती है कि प्रात्म-विचारणा में आत्मा को भौतिक मानना उसका प्रथम सोपान है। उस पारण्यक में वनस्पति, पशु एवं मनुष्य के चैतन्य के पारस्परिक सम्बन्ध का विश्लेषण किया गया है और यह बताया गया है कि औषधि, वनस्पति और ये जो समस्त पशु एवं मनुष्य हैं, उनमें प्रात्मा का विकास उत्तरोत्तर होता है । कारण यह है कि औषधि और वनस्पति में तो वह केवल रस-रूप में ही दिखाई देता है किन्तु पशुओं में चित्त भी दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य में वह विकास करते-करते तीनों कालों का विचारक बन जाता है। (2) प्राणात्मवाद-इन्द्रियात्मवाद उपनिषद् में उपलब्ध वैरोचन और इन्द्र की कथा का एक अंश देहात्मवाद की चर्चा में लिखा जा चुका है। यह भी कहा जा चुका है कि इन्द्र को प्रजापति के इस स्पष्टीकरण से सन्तोष भी नहीं हुआ था कि देह ही आत्मा है, अतः हम यह मान सकते हैं कि उस युग में केवल इन्द्र ही नहीं अपितु उन जैसे कई विचारकों के मन में इस प्रश्न के विषय में उलझनें हुई होंगी और उनकी इस उलझन ने ही प्रात्मतत्त्व के विषय में अधिक विचार करने के लिए उन्हें प्रेरित किया होगा । चिन्तनशील व्यक्तियों ने जब शरीर की प्राध्यात्मिक क्रियाओं का निरीक्षण-परीक्षण प्रारम्भ किया होगा, तब सर्वप्रथम उनका ध्यान प्राण की ओर आकृष्ट हुआ हो, यह स्वाभाविक है । उन्होंने अनुभव किया होगा कि निद्रा की अवस्था में जब समस्त इन्द्रियाँ अपनी-अपनी प्रवृत्ति स्थगित कर देती हैं, तब भी श्वासोच्छ्वास जारी रहता है । केवल मृत्यु के पश्चात् ही इस श्वासोच्छ्वास के दर्शन नहीं होते । इस बात से वे इस परिणाम पर पहुँचे कि जीवन में प्राण का ही सर्वाधिक महत्व है, अतः उन्होंने इस प्राण तत्त्व को ही जीवन की समस्त क्रियाओं का कारण माना । जिस समय विचारकों ने शरीर में स्फुरित होने वाले तत्त्व की प्राणरूप से पहिचान की, उस समय उसका महत्व बहुत बढ़ गया और उस विषय में अधिक से अधिक विचार होने लगा। परिणाम-स्वरूप प्राण के सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया कि, इस विश्व में जो कुछ है वह प्राण है । बृहदारण्यक में तो उसे देवों के भी देव का पद प्रदान किया गया है। प्राण अर्थात् वायु को प्रात्मा मानने वालों का खण्डन नागसेन ने मिलिन्दप्रश्न में किया है। शरीर में होने वाली क्रियानों के जो भी साधन हैं, उनमें इन्द्रियों का भाग अत्यन्त महत्वपूर्ण है, अतः यह स्वाभाविक है कि विचारकों का ध्यान उस ओर प्रवृत्त हो और वे 1. ऐतरेय आरण्यक 2.3 2 2. तैत्तिरीय 2.2, 3; कौषीतकी 3.2 3. छान्दोग्य 3.15.4 4. बृहदारण्यक 1.5.22-23 5. मिलिन्दप्रश्न 2.10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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