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________________ 80 गणधरवाद जिस प्रकार कोई पुरुष म्यान से तलवार बाहर खींचकर उसे अलग दिखा सकता है, उसी प्रकार प्रात्मा को शरीर से निकाल कर कोई भी पृथक्-रूपेण नही बता सकता । अथवा जिस प्रकार तिलों में से तेल निकालकर बताया जा सकता है, या दही से मक्खन निकालकर दिखाया जा सकता है, उसी प्रकार जीव को शरीर से पृथक् निकाल कर नहीं बताया जा सकता । जब तक शरीर स्थिर रहता है, तभी तक प्रात्मा की स्थिरता है, शरीर का नाश होने पर प्रात्मा का भी नाश हो जाता है । बौद्धों के दीघनिकायान्तर्गत पायासी सुत्त में और जैनों के रायपसेणइय सूत्र में उन प्रयोगों का समान रूप से विस्तृत वर्णन है जिन्हें नास्तिक राजा पायासी-पएसी ने 'जीव शरीर से पृथक् नहीं है' इस बात को सिद्ध करने के लिए किये थे। उनसे पता चलता है कि उसने मरने वालों से कहा हुया था कि, तुम मर कर जिस लोक में जानो, वहाँ से मुझे समाचार बताने के लिए अवश्य आना, किन्तु उनमें से एक भी व्यक्ति उसे मृत्यूपरान्त की स्थिति के विषय में समाचार देने नहीं पाया, अतः उसे यह विश्वास हो गया कि मृत्यु के समय ही आत्मा का नाश हो जाता है, शरीर से भिन्न प्रात्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है। 'शरीर ही आत्मा है' इस बात को प्रमाणित करने के उद्देश्य से राजा ने जीवित मनुष्य को लोहे की पेटी में अथवा हाँडी में बन्द करके यह देखने का प्रयत्न किया कि, मृत्यु के समय उसका जीव बाहर निकलता है या नहीं। परीक्षण के अन्त में उसने निश्चय किया कि, मृत्यु के समय शरीर से कोई जीव बाहर नहीं निकलता । जीवित और मृत व्यक्ति को तोलकर उसने यह परीक्षा भी की कि, यदि मृत्यु के समय जीव चला जाता हो तो वजन में कमी हो जानी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हुअा, प्रत्युत इसके विपरीत उसे यह पता चला कि मृत व्यक्ति का वजन बढ़ जाता है । मनुष्य के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर क्रमशः हड्डियों, मांस आदि में जीव की खोज की, किन्तु वह उनमें भी नहीं मिला। इसके अतिरिक्त राजा यह युक्ति दिया करता था कि, यदि शरीर और जीव अलग-अलग हैं तो क्या कारण है कि एक बालक अनेक बाण नहीं चला सकता और एक युवक यह काम कर सकता है; अतः शक्ति प्रात्मा की नहीं, अपितु शरीर की है और शरीर के नाश के साथ ही उसका नाश हो जाता है । __ पायासी राजा की भिन्न-भिन्न परीक्षाओं एवं युक्तियों से ज्ञात होता है कि वह प्रात्मा को भूतों के समान ही इन्द्रियों का विषय मानकर प्रात्मा सम्बन्धी शोध में लीन था और आत्मा को एक भौतिक तत्त्व मानकर ही उसने तद्विषयक खोज जारी रखी. इसीलिए उसे निराशा का मुख देखना पड़ा । यदि वह प्रात्मा को एक अमूर्त तत्त्व मानकर उसे ढूंढने का प्रयत्न करता तो उसकी शोध की प्रक्रिया और ही होती । रायपसेणइय के वर्णन के अनुसार पएसी का दादा भी उसी की भाँति नास्तिक था। इससे ज्ञात होता है कि प्रात्मा को भौतिक समझकर उसके विषय में विचार करने वाले व्यक्ति अति प्राचीनकाल में भी थे। इस बात का समर्थन पूर्वोक्त तैत्तिरीय उपनिषद् से भी होता है, जहाँ प्रात्मा को अन्नमय कहा गया है । 1. 2. सूत्रकृतांग 2.1.9; 2.1.10 तैत्तिरीय 2.1.2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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