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प्रस्तावना
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हो जाता है, अतः प्रात्मवाद के साथ सम्बद्ध परलोक और कर्मवाद का विचार इसके बाद ही होना प्रारम्भ हुआ। (3) मनोमय प्रात्मा :
विचारकों ने अनुभव किया कि प्राण-रूप कही जाने वाली इन्द्रियाँ भी मन के बिना सार्थक नहीं हैं, मन का सम्पर्क होने पर ही इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण कर सकती हैं, अन्यथा नहीं; और फिर विचारणा के विषय में तो इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं कर सकतीं। इन्द्रियव्यापार के अभाव में भी विचारणा का क्रम चलता रहता है । सुप्त मनुष्य की इन्द्रियाँ कुछ भी व्यापार नहीं करतीं, उस समय भी मन कहीं का कहीं पहुँच जाता है, अतः सम्भव है कि, उन्होंने इन्द्रियों से आगे बढ़कर मन को आत्मा मानना शुरु कर दिया हो । जिस प्रकार उपनिषत् काल में प्राणमय प्रात्मा को अन्नमय प्रात्मा का अन्तरात्मा माना गया, उसी प्रकार मनोमय आत्मा को प्राणमय प्रात्मा का अन्तरात्मा स्वीकार किया गया। इससे पता चलता है कि विचारप्रगति के इतिहास में प्राणमय प्रात्मा के पश्चात् मन्गेमय आत्मा की कल्पना की गई होगी।
प्राण और इन्द्रियों की अपेक्षा मन सूक्ष्म है, किन्तु मन भौतिक है या अभौतिक ? इस विषय में दार्शनिकों का मत एक नहीं है । किन्तु यह बात निश्चित है कि प्राचीन काल में मन को अभौतिक भी माना जाता था। इसीलिए न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने मन को अणुरूप मानकर भी पृथ्वी आदि भूतों के सभी परमाणुओं से उसे विलक्षण माना है। इसके अतिरिक्त सांख्य-मत में भी यह माना गया है कि भूतों की उत्पत्ति होने से पूर्व ही प्राकृतिक अहंकार से मन की उत्पत्ति हो जाती है । इससे भी यह संकेत मिलता है कि मन भूतों की अपेक्षा सूक्ष्म है। पुनश्च वैभाषिक बौद्धों ने मन को विज्ञान का समनन्तर कारण माना है, अत: मन विज्ञान रूप
॥ है, अतः मन विज्ञान रूप है । इस प्रकार प्राचीनकाल में मन को अभौतिक मानने की एक प्रवृत्ति स्पष्ट दृग्गोचर होती है, अतः हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस विचारक ने प्रात्म-विचारणा के विषय में प्राण को छोड़कर मन को प्रात्मा मानने की सर्वप्रथम कल्पना की होगी, उसने ही सबसे पहले आत्मा को भौतिक श्रेणी से निकाल कर अभौतिक श्रेणी में रखा होगा।
दार्शनिक सूत्र-ग्रन्थों और उनकी टीकाओं से ज्ञात होता है कि मन को आत्मा मानने वाले दार्शनिक सूत्र-काल में भी विद्यमान थे। मन को आत्मा मानने वालों का कथन था कि, जिन हेतुओं द्वारा आत्मा को देह से भिन्न सिद्ध किया जाता है, उनसे वह मनोमय सिद्ध होती है, अर्थात् मन सर्वग्राही है, अतः वह ऐसा प्रतिसन्धान कर सकता है कि एक इन्द्रिय द्वारा देखा गया और दूसरी इन्द्रिय द्वारा स्पर्श किया गया विषय एक ही है, फलत: मन को ही प्रात्मा मान लेना चाहिए । मन से भिन्न प्रात्मा को मानने की आवश्यकता नहीं है ।
1. तैत्तिरीय 2.3 2. मन के विषय में दार्शनिक मतभेद का विवरण प्रमाणमीमांसा' की टिप्पणी पृ० 42 पर
देखें। 3. न्यायसू० 3.2.11; वैशेषिक सू० 7.1.23
षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मन:-अभिधर्मकोष 1.17 5. न्यायसूत्र 3.1.16; न्यायवार्तिक पृ० 336
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