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तत्त्वानुशासन
यं निष्कलं सकलमक्षयकेवलं वा,
सन्तः स्तुवन्ति सततं समभावभाजः । वाच्यस्य तस्य वरवाचकमंत्रयुक्तो,
हे पान्थ ! शाश्वतपुरी विश निर्विशंक ॥ ३२ ।। अशरीरी सिद्ध की तथा अविनश्वर केवलज्ञानधारी शरीर सहित अरहन्त की साम्यभावधारी सन्तपुरुष-साधुगण की जो निरन्तर स्तुति करते हैं उस वाच्यरूप सिद्ध या अर्हन्त की उसके वाचक श्रेष्ठ मन्त्र सहित आराधना करते हैं वे मोक्षमार्ग के पथिक निर्भय हो मुक्तिपुरी में प्रवेश करते हैं।
तात्पर्य यह है कि जो अष्टगुणमंडित सिद्ध, परमौदारिक शरीर व अनंत चतुष्टय युत अहंत तथा समता रस के आस्वादो अहंतों का जो ध्यान करते हैं अथवा उनके वाचक मंत्र णमो अरहंताण-णमो सिद्धाणं का आश्रय ले जाप करता हुआ एकलयता को प्राप्त करता है तथा एकाग्र होने पर उसी रूप अपने को मानता है “सोऽहं, सोऽहं" को ध्याते हुए सकार का भी त्याग कर अहं रूप हो तन्मय हो जाता है। अतः हे मुक्तिराही, प्रथम तुम अरहंत-सिद्ध वाचक मन्त्रों का अवलम्बन लो, फिर तद्रूप हो पदस्थ ध्यान के द्वारा निजस्वरूप में लीन हो जाओ, मुक्तिपुरी में प्रवेश पाओ।
प्रणव मन्त्र को ध्यान विधि "ओम्" ध्यान करने वाला ध्याता, संयमी हृदय कमल की कर्णिका में स्थिर और स्वर व्यञ्जन अक्षरों से बेढ़ा हुआ, उज्ज्वल, अत्यन्त दुर्धर्ष देव और दैत्यों के इन्द्रों से पूजित तथा झरते हुए मस्तक में स्थित चन्द्रमा की लेखा के ( रेखा के ) अमृत से आद्रित महाप्रभावसम्पन्न कर्मरूपी वन को दग्ध करने के लिये अग्नि समान ऐसे महातत्त्व, महाबीज महामन्त्र महापदस्वरूप तथा शरद के चन्द्रमा के समान गौर वर्ण के धारक "ओं" को कुम्भल प्राणायाम से चिन्तन करें।
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