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________________ तत्त्वानुशासन परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात के भेद से ५ प्रकार का है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामों को दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प रूप होता है। गुरूपदेश से ध्यानाभ्यास सम्यग्गुरूपदेशेन समभ्यस्यन्ननारतम् । धारणासौष्ठवाडयानं प्रत्ययानपि पश्यति ॥८७॥ अर्थ-समीचीन गुरुओं के उपदेश से निरन्तर अभ्यास करता हुआ पुरुष, धारणाओं की पटुता, निपुणता, सुकरता या अनायास सिद्धि से, ध्यान तथा उसके कारणों को भी जानने लग जाता है ।। ८७ ॥ विशेष-आत्मा के ध्यान में अनुपम शक्ति है। इससे योगी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, योगो के ध्यान वाले वन में असमय में फलपुष्पों का आना, विरोधी प्राणियों का वैरभाव शान्त हो जाना आदि अतिशयों का बहुशः उल्लेख मिलता है। आत्मा के निर्मल भाव से अतिशय प्रकट हो जाता है। देवसेनाचार्य तत्त्वसार में कहते हैं 'दिट्टे विमलसहावे णियतच्चे इन्दियत्थपरिचत्ते । जायइ जोइस्स फुडं अमाणसत्तं खणद्धेन ॥ ४२ ॥' अर्थात् इन्द्रियों के विषय पराङ्मुख हो जाने पर आत्मा के निर्मल स्वभाव में जब स्वयं अपना आत्मा ही दिखने लगता है तब योगी को क्षणभर में मनुष्यों में असम्भव ऋद्धियाँ आदि प्राप्त हो जाती हैं। अभ्यास से ध्यान की स्थिरता यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थैय्यं लभेताभ्यासवर्तिनाम् ॥ ८८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार बार-बार अभ्यास से महान् शास्त्र भी स्थिर हो जाते हैं अर्थात् बड़े-बड़े शास्त्रों का दृढ़ ज्ञान हो जाता है, वैसे ही अभ्यास करने वालों का ध्यान भी स्थिरता को प्राप्त हो जाता है ।। ८८ ।। परिकर्म के आश्रय से ध्यान करणीय बथोक्तलक्षणो ध्याता ध्यातुमुत्सहते यथा । तदेव परिकर्मादौ कृत्वा ध्यायतु धीरधीः ॥८९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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