SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ तत्त्वानुशासन सामग्री तीन प्रकार की है, इसलिये ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकार के हैं। उत्तम सामग्री से ध्यान उत्तम होता है, मध्यम से मध्यम और जघन्य से जघन्य । उत्तम वज्रवृषभनाराचसंहनन, कर्मभूमि, चतुर्थ काल में शुक्लध्यान धारक योगी उत्तम ध्यान के बल से मुक्तावस्था प्राप्त करते हैं । वज्रवृषभनाराचसंहनन तथा वजनाराचसंहनन, कर्मभूमि, चतुर्थ काल में शक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क वीचार मध्यम ध्यान के ध्याता एक-दो भव लेकर मुक्त होते हैं। तथा तीन हीन संहनन के धारक, कर्मभूमि, पञ्चम काल के जोव धर्म्यध्यान की सिद्धि कर निकट भव्यता को प्राप्त करते हैं। अल्पश्रु तज्ञानी भी धर्म्यध्यान का धारक श्रुतेन विकलेनापि ध्याता स्यान्मनसा स्थिरः । प्रबुद्धधीरधःश्रेण्योधर्मध्यानस्य सुश्रुतः ॥ ५० ॥ अर्थ-अच्छी तरह से विकास को प्राप्त हो गई है बुद्धि जिसकी ऐसा ध्यान करने वाला व्यक्ति यदि श्रेणी ( उपशम या क्षपकश्रेणी ) चढ़ने के पहिले पहिले वह श्रुतज्ञान से विकल भी हो अर्थात् उसका पूर्ण विकास भी न हुआ हो फिर भी वह धर्म-ध्यान का अधिकारी कहा गया है ।। ५० ।। विशेष—इसमें आदिपुराण का अनुकरण किया गया है । आदिपुराण की शब्दावली भी लगभग यही है । वहाँ कहा गया है 'श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता मुनिसत्तमः । प्रबुद्धधीरधःश्रेण्योधर्म्यध्यानस्य सुश्रुतः ॥' २१/१०२ यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि अधःश्रेण्योः ( दोनों श्रेणियों के नीचे ) कहने से क्या अभिप्राय है ? दोनों श्रेणियों से नीचे धर्म्यध्यान के अस्तित्व को सूचना आगे ८३वें श्लोक में पुनः दी गई है। वहाँ कहा गया है कि पञ्चम काल में जिनेन्द्र भगवन्तों ने शुक्लध्यान का निषेध किया है, किन्तु दोनों श्रेणियों के पहले रहने वाले लोगों के धर्म्यध्यान माना है। यहाँ श्रेणियों के नीचे का अभिप्राय चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान तक धर्म्यध्यान को मानना अभीष्ट है । धर्म्यध्यान का प्रथम लक्षण सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धयं तद्ध्यानमभ्यधुः ॥५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy