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तत्त्वानुशासन 'दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा ।
तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ।। ४७ ॥ अर्थात् मनि नियम से दोनों प्रकार का मोक्षमार्ग ध्यान के आश्रय से ही प्राप्त करते हैं, अतः प्रयत्नशील होकर तुम लोग ध्यान का अभ्यास करो। और भी कहते हैं
तवसूदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा । तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होइ ।। ५७ .।
-द्रव्यसंग्रह क्योंकि तप, व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ को धुरा को धारण करने वाला होता है इस कारण हे भव्य पुरुषों ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिये सदैव तत्पर रहो ।
धर्म्य व शुक्ल सद्ध्यान आतं रौद्रं च दुनिं वर्जनीयमिदं सदा । धर्म शुक्लं च सद्धयानमुपादेयं मुमुक्षभिः ।। ३४ ॥ अर्थ-ध्यान के चार भेद हैं (आर्त, रौद्र, धर्म्य व शुक्ल) । इनमें से, संसार से छटकारा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के द्वारा आर्त परिणाम, एवं रौद्र परिणाम रूप जो खोटे ध्यान हैं वे सदा हो वर्जनीय (छोड़ने योग्य) हैं और धर्म्यध्यान एवं शक्लध्यान ग्रहण करने योग्य हैं ।। ३४ ।।
विशेष ध्यान चार प्रकार का होता है-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शक्लध्यान । इनमें आदि के दो ध्यान संसार का कारण होने से त्याज्य तथा अन्त के दो ध्यान मोक्ष का कारण होने से ग्राह्य कहे गये हैं। प्रियवस्तु का वियोग एवं अप्रिय वस्तु के संयोग का निराकरण करने के लिए, लक्ष्मी को प्राप्ति के लिए, पीड़ा दूर करने के लिए चिन्तन करना आर्तध्यान है और यह तिर्यञ्च गति का कारण है। हिंसा, झूठ, चोरी, भोगरक्षा का चिन्तन करना रौद्रध्यान है और यह नरक गति का कारण है। सर्वज्ञदेव की आज्ञा का चिन्तन, संसार के दुःखों के नाश का चिन्तन, कर्मफल का चिन्तन तथा लोकसंस्थान का विचार धर्म्यध्यान है और यह स्वर्ग-सुख का कारण है। पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति यह चार
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