SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० तत्त्वानुशासन कभी कुछ अन्तराल के बाद । किन्तु यह निश्चित है कि सम्यक्चारित्र अकेला नहीं रहता है । अतः तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है । (२) आत्मा में जिन कारणों से कर्मों का आस्रव होता है, उन कारणों का निरोध करने से कर्मों का आस्रव रुक जाता है । आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है - 'आस्रवनिरोधः संवरः ' ९/१ (३) तप विशेष से संचित कर्मों का क्रमशः अंश रूप से झड़ जाना निर्जरा है । तप से संवर एवं निर्जरा दोनों होते हैं- 'तपसा निर्जरा च । तत्त्वार्थ सूत्र ९ / ३. संवर और निर्जरा मोक्ष का कारण है । इसीलिये यहाँ पर मोक्ष के कारण के कारण को मोक्ष के कारणत्व का कथन किया गया है । सम्यग्दर्शन का स्वरूप २५ ॥ जीवादयो नवाप्यर्था ये यथा जिनभाषिताः । ते तथैवेति या श्रद्धा सा सम्यग्दर्शनं स्मृतम् ॥ अर्थ - जीव आदि जो नौ पदार्थ जिनेन्द्र भगवान् ने जैसे कहे हैं, वे वैसे ही हैं - इस प्रकार का जो श्रद्धान है, वह सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।। २५ ।। विशेष - (१) आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में निश्चयनय की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है 'भूयस्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसव संवर णिज्जरबंधो मोक्खो च सम्मत्तं ॥ १३ ॥ अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव पदार्थों की यथार्थ प्रतीति का नाम सम्यक्त्व है आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य पाप को छोड़कर शेष सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।' यह सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र का मूल है । इसके बिना ज्ञान तथा चारित्र मिथ्यात्वरूपी विष से दूषित रहते हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार सम्यग्दर्शन के चिह्न हैं । अनेक स्थलों पर सम्यक्त्व के संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण भी कहे गये हैं । ये आठों उपर्युक्त चार चिह्नों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । प्रशम में निन्दा, ग और संवेग में निर्वेद वात्सल्य और भक्ति गर्भित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy