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________________ तत्त्वानुशासन १३. बृहद्रव्यसंग्रह के संस्कृतवृत्तिकार श्रीब्रह्मदेव ने तृतीय अधिकार को ४१ वीं गाथा की वृत्ति में अहङ्कार की परिभाषा इस प्रकार दी है- "तत्रैव (कर्मजनितदेह पुत्रकलत्रादौ ) अभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाहमित्यहङ्कारलक्षणमिति ।" अर्थात् उन शरीर, पुत्र, स्त्री आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर 'मैं गोरा हूँ', 'मैं मोटा हूँ' 'मैं राजा हूँ' इस प्रकार मानना अहङ्कार का लक्षण है । मोह का घेरा मिथ्याज्ञानान्वितान्मोहान्ममाहंकारसंभवः । इमकाभ्यां तु जीवस्य रागो द्वेषस्तु जायते ॥ १६ ॥ अर्थ - मिथ्याज्ञान से युक्त रहने वाले मिथ्यादर्शन (मोह) से ममकार और अहङ्कार उत्पन्न होते हैं और इन दोनों से जीव को राग एवं द्वेष उत्पन्न होते हैं ।। १६ ।। विशेष - यह सब मिथ्याज्ञान एवं मिथ्यादर्शन का फल है कि व्यक्ति ममकार एवं अहङ्कार के कारण रागी द्वेषी बना रहता है। पं० टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में लिखा है 'मिथ्यादर्शनादिककरि जीव के स्वपरविवेक नाहीं होई सके है । एक आप आत्मा अर अनन्त पुद्गल परमाणुमय शरीर इनका संयोगरूप मनुष्यादि पर्याय निपजे है, तिस पर्याय हो को आपो माने है । बहुरि आत्मा का ज्ञानदर्शनादि स्वभाव है ताकरि किंचित् जानना देखना होय है । अर कर्म उपाधितैं भये क्रोधादिक भाव तिन रूप परिणाम पाईये हैं । बहुरि शरीर का स्पर्श रस गन्ध वर्ण स्वभाव है, सो प्रकटे है अर स्थूल कृषादिक होना व स्पर्शादिक का पलटना इत्यादि अनेक अवस्था होय है । इन सबनि को अपना स्वरूप जाने है । तहाँ ज्ञान दर्शन की प्रवृत्ति इन्द्रिय मन के द्वारे होय है तातैं यहु माने है कि ए त्वचा जोभ नासिका नेत्र कान मन ये मेरे अंग हैं, इनकरि मैं देखू जानूँ हूँ ऐसा मानि तातैं इन्द्रियनिविषै प्रोति पाईये है ।" आचार्य श्री योगीन्द्रदेव अमृताशीति ग्रन्थ में लिखते हैंअज्ञानतिमिर प्रस रोयमन्तः सन्दर्शिताखिलपदार्थ विपर्य्ययात्मा । Jain Education International मन्त्री स मोहनृपतेः स्फुरतोह याव त्तावत्कुतस्तव शिवं तदुपायता वा ॥ १४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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