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________________ तत्त्वानुशासन धर्म का अवर्णवाद-जिनेन्द्र कथित धर्म व्यर्थ है, इसमें कोई गुण नहीं है, इसके सेवन करने वाले असुर होवेंगे इत्यादि कहना धर्म का अवर्णवाद है। देव का अवर्णवाद-देव मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं, जीवों की बलि से प्रसन्न होते हैं आदि कहना सो देव का अवर्णवाद है। -( तत्त्वार्थसूत्र० ६।१३ ) इनके साथ ही-“मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्" सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मार्ग को सच्चा मोक्षमार्ग कहना ये भी दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण हैं। -तत्त्वार्थसार ४।२८ मिथ्याज्ञान का स्वरूप और तीन भेद ज्ञानावृत्त्युदयादर्थेष्वन्यथाधिगमो भ्रमः । अज्ञानं संशयश्चेति मिथ्याज्ञानमिह त्रिधा ॥ १० ॥ अर्थ-ज्ञान को ढक देने वाले ऐसे ज्ञानावरणी कर्म के उदय से पदार्थों के अन्य रूप से अर्थात् जैसा उसका स्वरूप है वैसा नहीं किन्तु अन्य प्रकार से जो ज्ञान होना है सो मिथ्याज्ञान है। वह भ्रम ( अनध्यवसाय ) अज्ञान (विपरीत ) व संशय के भेद से तीन तरह का है अर्थात् उसके तीन भेद हैं ॥ १० ॥ विशेष-(१) भ्रम मिथ्याज्ञान को अनध्यवसाय, अज्ञान मिथ्याज्ञान को विपरीत एवं संशय मिथ्याज्ञान को सन्देह नाम से भी उल्लिखित किया गया है। "किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः' अर्थात् 'कुछ है' ऐसा निश्चय रहित ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है। हल्के प्रकाश में 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' (ढूठ वृक्ष है अथवा आदमी है ) ऐसा विरुद्ध अनेक कोटि का स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय कहलाता है-'विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः।' शरीर को आत्मा मानना आदि एकमात्र विपरीत का निश्चय करने वाला ज्ञान विपरीत कहलाता है-'विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः ।' ये तोनों प्रकार के ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं, क्योंकि इनसे वस्तुतत्त्व का ज्ञान सही नहीं होता है। मिथ्याचारित्र का स्वरूप वृत्तिमोहोदया जन्तोः कषायवशवर्तिनः । योगप्रवृत्तिरशुभा मिथ्याचारित्रमूचिरे ॥ ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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