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तत्त्वानुशासन
(क) अनेक स्वभावात्मक वस्तु को एक स्वभाव मानना एकान्त
मिथ्यात्व है। (ख) अधर्म में धर्मरूप श्रद्धान का होना विपरीत मिथ्यात्व है। (ग) प्रत्येक रागी-वीतराग देवादि की विनय करना विनय मिथ्यात्व है। (घ) तत्त्वों के स्वरूप में सन्देह बना रहना संशय मिथ्यात्व है । (ङ) मूढभाव से तत्त्वज्ञान का उद्यम न करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
मिथ्यादर्शन का स्वरूप अन्यथावस्थितेष्वर्थेष्वन्यथैव रुचिर्नृणाम् ।
दृष्टिमोहोदयान्मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते ॥ ९॥ अर्थ-दर्शनमोहनोय कर्म के उदय से भिन्न प्रकार से विद्यमान पदार्थों में मनुष्यों की विपरीत रुचि या श्रद्धा को मोह अथवा मिथ्यादर्शन कहते हैं ।। ९ ॥
विशेष-(१) जैसा पदार्थ का यथार्थ स्वरूप है, उसे वैसा न मानना और जैसा पदार्थ का वास्तविक स्वरूप नहीं है, उसे वैसा मानना मिथ्यादर्शन कहलाता है। प्राणी की यह विपरीत रुचि दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होती है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु एवं सच्चे धर्म में दोष लगाने के कारण दर्शनमोहनीय कम का बंध होता है । यह दर्शनमोहनीय हो अनन्त संसार का कारण है। दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण
केवलिश्रुतसंघदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।।
केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय के आस्रव का कारण है।
अवर्णवाद-गुणवानों को झूठे दोष लगाना सो अवर्णवाद है ।
केवली अवर्णवाद-केवलो ग्रासाहार करके जीवित रहते हैं, इत्यादि कहना केवली का अवर्णवाद है ।
श्रत का अवर्णवाद-शास्त्र में मांस भक्षण करना लिखा है ऐसा कहना श्रुत का अवर्णवाद है ।
संघ का अवर्णवाद-साधु संघ को देखकर ये शूद्र हैं, मलिन हैं, नग्न हैं इत्यादि कहना सो संघ का अवर्णवाद है।
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