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तत्त्वानुशासन
सर्वज्ञ को वास्तविक सत्ता अस्ति वास्तवसर्वज्ञः सर्वगीर्वाणवन्दितः ।
घातिकर्मक्षयोद्भूतस्पष्टानन्तचतुष्टयः ॥२॥ अर्थ-ज्ञानावरणी आदि चार घातिया कर्मों के नाश से स्पष्टरूपेण जिसे अनन्त चतुष्टयों की उद्भूति (प्रगटता) हो गई है तथा जो इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं द्वारा वन्दनीय है, ऐसा कल्पित नहीं, अपितु वास्त. विक सर्वज्ञ पाया जाता है ॥ २॥
विशेष-(१) यतः दूरवर्ती, सूक्ष्म एवं व्यवहित पदार्थों का कथन सर्वज्ञ के बिना सम्भव नहीं है, इसलिए ग्रन्थकार ने यहाँ सर्वज्ञत्व एवं उसके कारण तथा तज्जन्य कार्य का कथन किया है। घातिकर्मों का नाश सर्व ज्ञत्व का हेतु तथा अनन्तचतुष्टय का प्रकटोकरण सर्वज्ञत्व का कार्य है।
(२) अष्टविध कर्मों में ज्ञानावरणो, दर्शनावरणो, मोहनाय और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं। आत्मा के अनुजोवी गुणों का घात करने के कारण इन्हें घातिकर्म कहा गया है। इनके अभाव के बिना सर्वज्ञता संभव नहीं है तथा इनके अभाव हो जाने पर सर्वज्ञता तत्काल अवश्यंभावी है।
(३) सर्वज्ञता प्राप्ति के साथ ही जीव को अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य एवं अनन्त सुख की प्राप्ति हो जाती है। अनन्तचतुष्टय में अनन्त शब्द असीमितता एवं सर्वोत्कृष्टता का सूचक है।
(४) 'सर्वगीर्वाणवन्दितः' कहने से सर्वज्ञ की इन्द्रादि सभी देवताओं द्वारा पूज्यता का कथन अभीष्ट है।
हेय एवं उपादेय द्विविध तत्त्व तापत्रयोपतप्तेभ्यो भव्येभ्यः शिवशर्मणे ।
तत्त्वं हेयमुपादेयमिति द्वधाऽभ्यधादसौ ॥ ३ ॥ अर्थ-जन्म, जरा, मरण रूप तीन संताप से संतप्त भव्य जीवों को मोक्ष-रूप सुख की प्राप्ति के लिए, उस सर्वज्ञ देव ने हेय अर्थात् छोड़ने योग्य और उपादेय अर्थात् अपनाने योग्य, रूप दो प्रकार के तत्त्वों का उपदेश दिया ॥ ३ ॥
विशेष-(१) आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के तापों से संसारी प्राणी संतप्त है। आध्यात्मिक दुःख शारीरिक
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