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________________ श्री वीतरागाय नमः श्रीमन्नागसेन मुनि विरचितम् तत्त्वानशासनम् मंगलाचरण सिद्धस्वार्थानशेषार्थस्वरूपस्योपदेशकान् । परापरगुरून्नत्वा वक्ष्ये तत्त्वानुशासनम् ॥१॥ अर्थ-कर्म-मल-रहित, शुद्ध, आत्मस्वरूप रूप स्वार्थ को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है तथा सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूप का जिनने उपदेश दिया है, ऐसे जो पर तथा अपर गुरुवृन्द हैं, उनको नमन कर मैं ( नागसेन मुनि ) तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ को कहता हूँ ।। १ ।। (१) इस कारिका में श्री नागसेन मुनि ने सर्व प्रथम गुरुओं को प्रणाम करके तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ को प्रस्तुत करने की प्रतिज्ञा की है। गुरुओं के दो विशेषण हैं-सिद्धस्वार्थ एवं अशेषार्थोपदेशक । सिद्धस्वार्थ से शुद्ध आत्मा के अनुभव करने वालों तथा अशेषार्थोपदेशक से सर्वतत्त्वज्ञों की ओर संकेत है। परापर गुरु कहने से प्राचीन एवं अर्वाचीन परम्परागत सभी गुरुओं के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति की गई है । (२) सिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं श्रोतु श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ।। इस नियम के अनुसार शास्त्र के प्रारम्भ में अनुबन्ध चतुष्टय का उल्लेख आवश्यक माना गया है। प्रकृत ग्रन्थ में तत्त्वानुशासन अभिधेय है, ग्रन्थ और अभिधेय का वाच्यवाचक सम्बन्ध है, शुद्ध आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति प्रयोजन है और मुमुक्षु इस ग्रन्थ का अधिकारी है। (३) भावसहित नमस्कार करने से नमस्कारार्ह के गुणों की उपलब्धि होतो है तथा भावों की शुद्धि हो जाती है। पूज्य के पुण्यगुणों की स्मृति से चित्त निष्पाप हो जाता है। समन्तभद्राचार्य ने कहा है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः । -स्वयंभूस्तोत्र, ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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