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तत्त्वानुशासन
देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगत् दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञानज्योतिषि व स्फुटत्यतितरामों भूर्भुवः स्वस्त्रयी । शब्दज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी
स श्रीमानमराचितो जिनपतिर्ज्योतिस्त्रयायास्तु नः ॥ २५९ ॥ इति श्रीमन्नागसेनमुनिविरचितः तत्त्वानुशासनसिद्धान्तः समाप्तः अर्थ-क्षीरोदधि के समान जिनकी शरीर कान्ति में सारा संसार डूबा हुआ है, जिनकी ज्ञान ज्योति में भू, भवः, और स्व की त्रयी ( तिकड़ी ) अत्यंत स्पष्ट रीति से प्रकाशमान हो रही है, दर्पण के समान जिनकी शब्द ज्योति ( दिव्यध्वनि ) में सम्पूर्ण चराचर पदार्थ झलक रहे हैं, जो अन्तरंग ( अनन्त चतुष्टयादि ) एवं बहिरंग ( समवसरणादि ) लक्ष्मी कर युक्त हैं तथा जो देवों द्वारा वन्दनीय हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान् हम लोगों को ज्योतित्रय — देहज्योति, ज्ञानज्योति व शब्द ज्योति के प्रदान करने वाले होवें ।
इस प्रकार श्रीमान् नागसेन मुनि द्वारा विरचित तत्त्वानुशासन नामक सिद्धान्तग्रन्थ समाप्त हुआ ।
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