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प्रशस्ति श्री वीरचन्द्रशुभदेवमहेन्द्रदेवाः
शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरश्च । दीक्षागुरुः पुनरजायत पुण्यमूतिः
__ श्रीनागसेनमुनिरुद्धचरित्रकीतिः ॥२५६॥ अर्थ-श्री वीरचन्द्र, शुभदेव और महेन्द्रदेव जिसके शास्त्रगुरु अर्थात् विद्यागुरु थे तथा पुण्यमूर्ति श्री विजयदेव दीक्षागुरु हुए ऐसे फैली हुई चारित्र की कीर्ति वाले श्री नागसेन मुनि हुए ।। २५६ ।।
तेन प्रवृद्धधिषणेन गुरूपदेश
___ मासाद्य सिद्धिसुखसम्पदुपायभूतम् । तत्त्वानुशासनमिदं जगतो हिताय
__ श्रीनागसेनविदुषा व्यरचि स्फुटार्थम् ॥२५७॥ अर्थ-अत्यन्त बढ़ी हुई बुद्धि वाले उस विद्वान् नागसेन मुनि ने गुरु के उपदेश को पाकर, संसार के हित के लिए सिद्धि एवं सुखसम्पत्ति के साधनभूत इस स्पष्ट अर्थ वाले "तत्त्वानुशासन' नामक ग्रन्थ की रचना की ॥ २५७ ।। जिनेन्द्राः सध्यानज्वलनहुतघातिप्रकृतयः,
प्रसिद्धाः सिद्धाश्च प्रहततमसः सिद्धिनिलयाः । सदाचार्या वर्याः सकलसदुपाध्यायमुनयः
पुनन्तु स्वान्तं नस्त्रिजगदधिकाः पञ्च गुरवः ॥२५८॥ अर्थ-जिन्होंने समोचीन ध्यान रूपी अग्नि में चार घातिया कर्म प्रकृतियों को होम दिया है ऐसे श्री जिनेन्द्र अर्हन्त देव, नष्ट कर दिया है अज्ञानान्धकार जिन्होंने तथा सिद्ध शिला में विराजमान जो प्रसिद्ध सिद्ध परमेष्ठी, श्रेष्ठ, आचार्यवृन्द, समस्त प्रशस्त उपाध्याय गण व साधु समुदाय रूप जो त्रिलोकातिशायी पंचपरमेष्ठी हैं, वे हम लोगों के अन्तःकरण को पवित्र करें ॥ २५८ ।।
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