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तत्त्वानुशासन
११५ न हीन्द्रियधिया दृश्यं रूपादिरहितत्त्वतः । वितस्तिन्न पश्यन्ति ते ह्यविस्पष्टतर्कणाः ॥१६६॥
अर्थ-वह रूपादि रहित होने से इन्द्रिय ज्ञान द्वारा जाना नहीं जा सकता और देखा भी नहीं जा सकता। वितर्क भी उसे जान नहीं सकता और देख नहीं सकता। कारण कि वे वितर्क अस्पष्ट तर्कणारूप होते हैं ॥१६६॥
उभयस्मिन्निरुद्ध तु स्याद्विस्पष्टमतीन्द्रियम् । स्वसंवेद्यं हि तद्रूपं स्वसंवित्त्यैव दृश्यताम् ॥१६७॥
अर्थ-आत्मा के दोनों ( माध्यस्थ्य एवं उदासीनता) से भरपूर होने पर वह अतीन्द्रिय किन्तु अत्यन्त स्पष्ट होता है। निश्चय ही उसका स्वरूप स्वसंवेद्य होता है, इसलिये उसे स्वसंवेदन से ही देखना चाहिये ॥१६७।।
विशेष—दोनों ( इन्द्रिय ज्ञान और वितर्क ) को प्रवृत्ति रुक जाने पर, आत्मा का अतीन्द्रिय स्वरूप विशेष स्पष्ट हो जाता है। निश्चय से उसका वह स्वरूप स्वसंवेदन से जानने योग्य है अतः स्वसंवेदन को ही देखना चाहिये।
वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण चकासते ।
चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥१६८॥ अर्थ-शरीर का प्रतिभास या ज्ञान न होने पर भी ज्ञान स्वरूप यह चेतना स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकाशित होतो है और स्वयं ही दिखाई देती है ।।१६८॥
समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नानुभूयते । तदा न तस्य तद्ध्यानं मूर्छावान् मोह एव सः ॥१६९॥ अर्थ-समाधि में विद्यमान या ध्यान लगाये हुए ध्याता के द्वारा यदि ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव नहीं किया जा रहा है तो उसका वास्तविक ध्यान नहीं है और वह परिग्रहासक्त मोही ही है ॥१६९।। विशेष-ध्यानस्तव में भी कहा गया है
समाधिस्थस्य यद्यात्मा ज्ञानात्मा नावभासते। न तद् ध्यानं त्वया देव गीतं मोहस्वभावकम् ॥ ५ ॥
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