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________________ ११४ तत्त्वानुशासन अर्थ-स्वसंवेदन के आत्मज्ञान एवं परज्ञान रूप होने से अन्य कारण की आवश्यकता नहीं है, इसलिए चिन्ता को छोड़कर स्वसंवेदन के द्वारा ही आत्मा को जानना चाहिये ॥१६२॥ दृग्बोधसाम्यरूपत्वाज्जानन् पश्यन्नुदासिता । चित्सामान्यविशेषात्मा स्वात्मनैवानुभूयताम् ॥१६३॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं समता रूप होने से आत्मा जानता हुआ एवं देखता हुआ भी उदासीन रूप है। सामान्य एवं विशेष चैतन्य रूप है। ऐसे आत्मा का अपने आत्मा के द्वारा हो अनुभव करना चाहिये ॥१६३।। कर्मजेभ्यः समस्तेभ्यो भावेभ्यो भिन्नमन्वहम् । ज्ञस्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥१६४॥ अर्थ-मैं कर्मों से उत्पन्न होने वाले सभी भावों से भिन्न हूँ। ज्ञाता स्वभाव एवं उदासीन आत्मा को आत्मा के द्वारा जानना चाहिये ।।१६४।। विशेष-ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित सिद्ध होते हैं, जो लोकाग्र में अपने शुद्ध स्वरूप में विराजमान रहते हैं। वे परम शुद्ध ज्ञान रूप तथा निर्विकार होने से उदासीन होते हैं। ध्याता जब अपने को सिद्ध समान मनन करता है तो उसे स्वानुभव का प्रकाश मिलता है। देवसेनाचार्य ने तत्त्वसार में कहा है कि मलरहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो। तारिसओ देहत्थो परमो बंभो मुणेयव्वो ॥ २६ ॥ अर्थात् सिद्धगति में जैसे सिद्ध भगवान् सर्वमलरहित एवं ज्ञानस्वरूपी रहते हैं, वैसे ही अपनी देह में स्थित परम ब्रह्म को जानना चाहिये । जारिसया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीवतारिसा होति । जरमरणजम्ममक्का, अट्टगुणलंकिया जेण ॥ ४७॥ यन्मिथ्याभिनिवेशेन मिथ्याज्ञानेन चोज्झितम् । तन्मध्यस्थ्यं निजं रूपं स्वस्मिन्संवेद्यतां स्वयम् ॥१६५॥ अर्थ-जो आत्मस्वरूप मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याज्ञान से रहित है, उसे माध्यस्थ्य कहते हैं। उसका आत्मा में अपने आप संवेदन करना चाहिये ।।१६५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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