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तत्त्वानुशासन
आत्मभावना करो तस्मान्मोहप्रहाणाय बहिरिचन्तानिवृत्तये । स्वात्मानं भावयेत्पूर्वमैकाग्रयस्य च सिद्धये ॥ १४६ ॥
अर्थ-इसलिए मोह को नष्ट करने के लिये, बाहरी चिन्ताओं की निवृत्ति करने ( हटाने या दूर करने ) के लिये तथा एकाग्रता की प्राप्ति के लिये सबसे पहले अपने आपको आगे कहे माफिक भावित-भावना-युक्त करें ॥ १४६ ॥
आत्मभावना कैसे करें ? तथा हि चेतनोऽसंख्यप्रदेशो मूतिवजितः ।
शुद्धात्मा सिद्ध रूपोऽस्मि ज्ञानदर्शनलक्षणः ॥ १४७ ॥ अर्थ-जैसे कि-मैं चैतन्य हूँ, असंख्यातप्रदेशों वाला हूँ, अमूर्तिक हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ, सिद्धस्वरूप हूँ और ज्ञानमय एवं दर्शनमय हूँ ।। १४७ ।।
विशेष-(१) अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व ये छः गुण तो जीवादि छहों द्रव्यों में पाये जाते हैं किन्तु ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य एवं चैतन्य केवल जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं। पुद्गल की अपेक्षा अमूर्तिकपना भी जीव में विशेष गुण है। सर्वज्ञेय को एक साथ जानने की योग्यता ज्ञान है, उनके सामान्यज्ञान को दर्शन कहते हैं। परम निराकुल अतीन्द्रिय ज्ञान का भोग सुख है । स्व स्वभाव में रहना, परस्वभाव रूप न होना तथा स्वभाव में परिणमन की अनन्तशक्ति होना सो वीर्य है। आत्म स्वभाव के अनुभव को चैतन्य कहते हैं। जीव के इन्हीं विशिष्ट गुणों का वर्णन उक्त कारिका में किया गया है। पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है___'स्वसंवेदनसूव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः।।
अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः॥ २१ ॥ –इष्टोपदेश (२) आत्मा परभाव एवं परकार्य का कर्ता नहीं है और भोक्ता भी नहीं है। मन-वचन-काय के निमित्त से योग होता है। योग से क्रिया होती है और तब अशुद्धोपयोग के कारण आत्मा अपने को कर्ता भोक्ता समझने लगता है। वस्तुतः आत्मा तो उक्त श्लोक में वर्णित स्वरूप वाला है।
नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नान्यस्याहं न मे परः। अन्यस्त्वन्योऽहमेवाहमन्योन्यस्याहमेव मे ॥ १४८ ॥
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