SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वानुशासन १०७. इस प्रकार श्रुत के द्वारा सार असार को जानकर सार ग्रहण कर असार त्याग निःकेवल ज्ञानानदमयी निजानन्दस्वभावी चिदानन्द स्वरूप में लीन हो मा चिट्ठह मा जंपह, मा चितह किं वि जेग होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव पर हवे झाणं ।। ५६ ।। -द्रव्यसंग्रह किसी प्रकार को चेष्टा न करो, किसी प्रकार का अन्तर्जल्प भी न करो, किसी प्रकार की चिन्ता भो न करो कैसे भी आत्मस्वभाव में स्थिर हो जाओ। आत्मा का आत्मा में रत होना ही परम ध्यान है। उरो मत श्रुतज्ञान की भावना करो यस्तु नालम्बते श्रौती भावनां कल्पनाभयात् । सोऽवश्यं मुहयति स्वस्मिन् बहिश्चिन्तां बिभर्ति च ॥१४५॥ अर्थ-जो कल्पनाओं के डर से कि यदि आत्मा को अनेक विशेषणों वाला ख्याल करूँगा तो चित्त नाना कल्पनाओं के जाल में फंस जायगा, श्रुत सम्बन्धी भावनाओं का आलम्बन नहीं लेता वह अवश्य हो अपने ( आत्मा के ) विषय में मोह ( अज्ञान ) को प्राप्त हो जाता है और अन्य बाहिरी चिन्ताओं को करने लग जाता है ।। १४५ ।। विशेष-अरहंत तीर्थंकर भगवान् ने जिसका अर्थरूप से प्रतिपादन किया है और चार ज्ञान के धारी अष्टमहाद्धियों से सहित तीर्थंकरों के युवराजस्वरूप गणधरों ने जिसकी द्वादशांग रूप रचना की है उसे सूत्र कहते हैं। भावसूत्र और द्रव्यसूत्र की अपेक्षा सूत्र के दो भेद हैं-तोयंकर परमदेव के द्वारा प्रतिपादित जो अर्थ है वह भावसूत्र अथवा भावश्रुत है और गणधर देवों के द्वारा द्वादशांग रूप जो रचना हुई है वह द्रव्यसूत्र या द्रव्यश्रुत है। (सूत्र प्रा० टोका) मृत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कूणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णोवि ।। ३ ।। सू० पा० । जिस प्रकार वस्त्र में छेद करने वाली लोहे की सुई डोरा से रहित होने पर नष्ट हो जाती है उसी प्रकार सूत्र-शास्त्र की भावना या शास्त्र ज्ञान से रहित मनुष्य नष्ट हो जाता है। हे भव्यात्माओं ! श्रुतज्ञान की भावना पुनः-पुनः करो क्योंकि जो सच्चे शास्त्र को जानता है वह संसार का नाश करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy