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तत्त्वानुशासन
१०५ दूसरे का आलम्बन लेना पड़ता है। अब निश्चय नय से ध्यान का वर्णन किया जाता है जिसमें स्व-स्वरूप का आलम्बन हुआ करता है।
ब्रुवता ध्यानशब्दार्थ यद्रहस्यमवादिसत् । तथापि स्पष्टमाख्यातुं पुनरप्यभिधीयते ॥ १४२ ॥ अर्थ-यद्यपि ध्यान शब्द का अर्थ समझाते हुए, उसमें जो रहस्य था उसे कह दिया गया है तथापि स्पष्ट रूप से कथन करने के लिए फिर भी कुछ कहते हैं।
स्व को जाने-देखे-श्रद्धा करे दिधासुः स्वं परं ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थितिम् । विहायान्यदनथित्वात् स्वमेवावैतु पश्यतु ॥ १४३ ॥
अर्थ-ध्यान करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को चाहिये कि वह स्व-पर को जैसी उनकी स्थिति है उस ढंग से, जाने व श्रद्धा करे। फिर दूसरे पदार्थों को अपने प्रयोजन का असाधक ( सिद्ध करने वाला नहीं) समझ छोड़ते हुए, अपने आपको ही जाने व उसकी श्रद्धा करे ।। १४३ ।। विरम-विरम बाह्यादि पदार्थे,
रम-रम मोक्षपदे च हितार्थे, कुरु-कुरु निजकार्य च वितन्द्र,
भव-भव केवलबोध यतीन्द्र ॥६८॥ -वै० म० हे भव्यात्मन् ! यदि तु ध्यान की इच्छा करता है, ध्यान की सिद्धि चाहता है तो बाह्य-संसार, शरीर भोगों से विश्राम ले, विश्राम ले । तू स्त्री-पुत्र, महल, मकानादि जो बाह्य पदार्थ हैं उनसे अपनी प्रवृत्ति को हटा, राग को दूर कर, विरक्ति रूप परिणामों की वृद्धि कर, हितकारक जो आत्मा के असली वास करने का स्थान शिव पद है, उसमें ही लौ को लगा, वहीं क्रोड़ा कर, आलस्य रहित हो, स्व आत्म स्वरूपावलोकन रूप जो अपना कार्य है उसे पूरा कर, अन्त में केवलज्ञान को प्राप्त कर यतियों के इन्द्रत्व पद को प्राप्त कर । और भी कहते हैं-मुच मुच विषयामिषभोगम्
लुप लुप निजतृष्णारोगम् रुंध रुध मानसमातंगम् धर-घर जीव विमलतरयोगम् । -वै ६९
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