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तत्त्वानुशासन
कहा गया है । परमेष्ठियों का ध्यान करने से वह सभी ध्यान हो जाता है ॥ १४०॥
विशेष - अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी । ते विहु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ १०४ ॥
अरहंत सिद्ध आचार्य परमेष्ठी के ध्यान से स्वात्मतत्त्व की सिद्धि हो आत्मा परमात्मा बन जाता है । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पाँच परमेष्ठी भी जिस कारण आत्मा में स्थित हैं, उस कारण आत्मा ही मेरे लिये शरण है ।
तात्पर्य यह कि अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी हमारे इष्ट देवता हैं, ध्येय हैं सो ये सभी स्वात्मा में स्थित हैं । अर्थात् आत्मा की ही परिणति रूप हैं । ये पाँचों मेरे साध्य की सिद्धि में इष्ट ध्येय हैं क्योंकि — केवलज्ञानादि गुणों से विराजमान होने तथा समस्त भव्यजीवों के संबोधन में समर्थ होने से मेरी यह आत्मा ही अरहंत है । समस्त कर्मों के क्षय रूप मोक्ष को प्राप्त होने से निश्चयनय की अपेक्षा मेरी आत्मा ही सिद्ध है । दीक्षा और शिक्षा के दायक होने से पञ्चाचार के स्वयं आचरण तथा दूसरों को आचरण कराने में समर्थ होने से और सूरिमंत्र तथा तिलकमंत्र से तन्मय होने के कारण मेरी आत्मा ही आचार्य है । श्रुतज्ञान के उपदेशक होने से, स्वपर मत के ज्ञाता होने से तथा भव्यजीवों के संबोधक होने से मेरी आत्मा ही उपाध्याय है और रत्नत्रय के आराधक होने से सर्वद्वन्दों से रहित होने से, दीक्षा शिक्षा यात्रा प्रतिष्ठा आदि अनेक धर्म कार्यों की निश्चिन्तता से तथा आत्मतत्त्व की साधकता से मेरी यह आत्मा ही साधु है । इस प्रकार परमेष्ठियों के ध्यान से ध्याता स्वयं तद्रूप हो सर्वसिद्धि को प्राप्त हो जाता है— अर्हदुस्वरूपोऽहं सिद्धस्वरूपोऽहं आचार्यस्वरूपोऽहं उपाध्यायस्वरूपोऽहं
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स्वरूपोऽहं । सोऽहं, अहं, परमानन्द स्वरूपोऽहं ।
निश्चयनय की अपेक्षा स्वावलंबन ध्यान के कथन की प्रतिज्ञा व्यवहारनयादेवं ध्यानमुक्तं पराश्रयम् । निश्चयादधना स्वात्मालम्बनं तन्निरूप्यते ॥ १४१ ॥
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- मोक्ष प्रा०
अर्थ - इस तरह अभी तक जिस ध्यान का वर्णन किया गया वह सब व्यवहारनय से कहा हुआ ध्यान समझना चाहिये कारण कि उसमें पर का
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साधुपरमेष्ठी
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