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तत्त्वानुशासन देह-देवालय स्थित निज प्रभु की प्राप्ति कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता हैंदासोऽहं रटता प्रभु, आया जब तुम पास,
दा दर्शन से हट गया, सोऽहं रहा प्रकाश । सोऽहं सोऽहं रटत ही रह न सक्यो सकार,
अहं दोपमय हो गयो, अविनाशी अविकार ॥
ध्येय आचार्य उपाध्याय साधु का स्वरूप सम्यग्ज्ञानादिसम्पन्नाः प्राप्तसप्तमहर्द्धयः । तथोक्तलक्षणाः ध्येयाः सूर्यु पाध्यायसाधवः ॥१३०॥ अर्थ-उसो प्रकार सम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न, सातों महान् ऋद्धि यों को प्राप्त तथा आगम में कथित लक्षणों वाले आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का भी ध्यान करना चाहिये ।। १३० ॥
विशेष-प्रवचनरूपी समद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनको बुद्धि निर्मल हो गयी है जो निर्दोष छः आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कंप हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश कुल जाति से शुद्ध हैं, सौम्य हैं, अन्तरंग बहिरंग परिग्रह से रहित हैं आकाश के समान निर्लेप हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। जो संघ के संग्रह अर्थात दोक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित देने में कुशल हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं। (ध० १)
ज्ञानकांडे क्रियाकांडे चातुर्वर्ण्य पुरः सरः ।
सूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ॥ ये आचार्यपरमेष्ठी सम्यकज्ञान व चारित्र से सम्पन्न होकर बढ़ती हुई परिणामों की विशुद्धता से बुद्धि, ऋद्धि, क्रिया ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, तप ऋद्धि, बल ऋद्धि, औषधि ऋद्धि, रस ऋद्धि और क्षेत्र ऋद्धि आदि महाऋद्धियों को प्राप्त करते हैं। आचारत्वादि आठ स्थितिकल्प दस, तप बारह और छह आवश्यक इस प्रकार आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस गुण माने गये हैं-१. आचारवान् २. आधारवान् ३. व्यवहारवान् ४. प्रकारक ५. आयापायदर्शी ६. उत्पोडक, ७. सुखकारी और ८. अपरिस्रावी ९. अचेलकत्व १०. उद्दिष्टशय्या ११. उद्दिष्ट आहार त्याग १२. राजपिण्ड
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