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तत्त्वानुशासन
योजन है और उसके आगे घटते-घटते अन्त एक अंगुल मात्र । अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है (त्रि० सा० )
वे सिद्ध भगवान् निश्चय से स्व में ही रहते हैं, व्यवहार से सिद्धालय में रहते हैं। देवाधिदेव व्यवहार से लोकान में स्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यो अत्यन्त अविचल रूप से रहते हैं।
सम्मत्त णाण दसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं ।
अगुरुल घुमव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं ॥ क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व ये सिद्धों के आठ मूलगुण हैं ।
अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व ये सिद्धों के आत्यन्तिक गुण होते हैं । (ध० १३)
सिद्धों के आठ मूलगुणों में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा चार गुण मिलाने पर बारह गुण माने गये हैं
द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा । सिद्धाप्तगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृता ॥
___-ध० १३/५. ४. २६/श्ल० ३०/६० सिद्ध जीव-परम शुद्ध जीवद्रव्य हैं। अनन्त शाश्वत गुणों के स्वामी हैं। स्वभाव अर्थपर्याय व स्वभाव व्यंजनपर्याय संयुत हैं। गति आदि १४ मार्गणा में ज्ञान मार्गणा में भी केवलज्ञान सहित हैं तथा दर्शन मार्गणा में केवलदर्शन सहित हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन रहित व शेष मार्गणाओं से भी रहित हैं। गुणस्थानातीत, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा रहित सिद्धों का ध्यान करो। सिद्धों को ध्येय बनाकर निज शुद्धात्मा चिन्तन करने वाला परम सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है ।
ध्येय अरहन्तों का स्वरूप तथाद्यमाप्तमाप्तानां देवानामधिदैवतम् । प्रक्षीणघातिकर्माणं प्राप्तानन्तचतुष्टयम् ॥ १२३ ॥ दूरमुत्सृज्यभूभागं नभस्तलमधिष्ठितम् । परमौदारिकस्वाङ्गप्रभाभत्सितभास्करम् ॥१२४ ॥
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