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तत्त्वानुशासन
ध्येय सिद्धों का स्वरूप अनन्तदर्शनज्ञानसम्यक्त्वादिगुणात्मकम् स्वोपात्तानन्तरत्यक्तशरीराकारधारिणः ॥१२० ॥ साकारं च निराकारममूर्तमजरामरम् । जिनबिम्बमिव स्वच्छस्फटिकप्रतिबिम्बितम् ॥ १२१ ॥ लोकाग्रशिखरारूढमुदूढसुखसम्पदम् । सिद्धात्मानं निराबाधं ध्यायेन्निर्द्ध तकल्मषम् ॥ १२२॥
अर्थ-जो अनंतदर्शन, ज्ञान, सम्यक्त्व आदि गुणों कर सहित हैं, सिद्ध अवस्था से ठीक पहिले छोड़े हए शरीर जिसे कि पहिले ग्रहण कर रखा था-के आकार को धारण करने वाले हैं, इसलिये साकार हैं किन्तु अमूर्त ( रूप, रस, गंध व स्पर्श रहित) होने से जो निराकार हैं, अजर हैं, अमर हैं जो स्वच्छ स्फटिक मणि में झलके हुए (प्रतिबिम्बित हए) जिनबिम्ब के समान हैं, जो लोकाग्र के शिखर में विराजमान हैं, सुखसम्पत्ति से समन्वित हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण कर्ममल को नष्ट कर दिया है ऐसे बाधाओं से रहित सिद्ध आत्मा को ध्यावें । ।। १२०-१२२ ।।
__णट्टकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा ।
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ॥ -नियमसार आठ कर्मों के बन्धन को जिन्होंने नष्ट किया है, ऐसे आठ महागुणों से सहित परम लोकाग्र में स्थित और नित्य, ऐसे वे सिद्ध नित्य ध्यान करने योग्य हैं।
सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक के ध्वजदंड से १२ योजन मात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथ्वी स्थित है। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तल का विस्तार पूर्व पश्चिम रूप से एक राजू प्रमाण है। वेत्रासन के सदृश वह पृथ्वी उत्तर दक्षिण भाग में कुछ कम सात राजू लम्बी है। इसकी मोटाई आठ योजन है। यह पृथ्वी घनोदधिवातलय, घनवात और तनुवात इन तीन वायुओं से युक्त है। इनमें से प्रत्येक वायु का बाहल्य २०,००० योजन प्रमाण है। इसके बहुमध्य भाग में चाँदी एवं सुवर्ण के सदृश और नाना रत्नों से पूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश ( या आधे कटोरे के समान ) आकार से सून्दर और ४५,००,००० योजन विस्तार संयुक्त है। उसका मध्य बाहुल्य आठ
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