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तत्त्वानुशासन
इन कृत्रिमाकृत्रिम जिनबिम्बों को नमस्कार व इनका ध्यानादि करने से कोटिभवों की कर्मशृंखला कटती हैं |
द्रव्य नामक ध्येय का स्वरूप
यथेकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्नु नश्वरम् ।
तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ॥ ११० ॥ अर्थ --- जिस प्रकार एक द्रव्य एक समय में उत्पन्न होने वाला, स्थिर रहने वाला अथवा नष्ट होने वाला होता है, सब द्रव्य सदा उसी रूप में होते हैं - इस प्रकार तत्त्व का चिन्तन करना चाहिये ॥ ११० ॥
विशेष- दव्वं सल्लक्खणियं उपाददव्त्रयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥ १० ॥ - पंचास्तिकाय
सर्वज्ञ देव ने द्रव्य को सत्ता लक्षण वाला कहा है । अर्थात् जो सत् है वह द्रव्य है, अथवा जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त हैं वह द्रव्य है, अथवा जो गुण और पर्यायों का आधार है वह द्रव्य है ।
- तत्वार्थ सूत्र ५ / २९
सद्द्रव्यलक्षणम् ।
द्रव्य का लक्षण सत् ( अस्तित्व ) है |
उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥
- तत्वार्थ सूत्र ५ / ३०
जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य कर सहित हो वह सत् है । उत्पाद - द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं । जैसे - मिट्टी की पिंड पर्याय से घट का ।
व्यय - पूर्व पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं । जैसे—-घट पर्याय उत्पन्न होने पर पिण्ड पर्याय का ।
धौच्य - दोनों पर्यायों में मौजूद रहने को धौव्य कहते हैं ।
जैसे- पिण्ड तथा घट पर्याय में मिटटी का ।
उत्पाद आदि का द्रव्य से अभेद हैं- उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्याय द्रव्य में होता है । इसलिये यह निश्चय है कि उत्पाद आदि सब द्रव्य रूप ही हैं ।
उत्पाद आदि में एक क्षण का भी भेद नहीं है
द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय और धौव्य नामक भावों से एकमेक है | अतः वे तीनों द्रव्य स्वरूप हो हैं ।
द्रव्य का उत्पाद अथवा विनाश नहीं होता, वह तो किन्तु उसी की पर्याय उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को करती है । दृष्टि से द्रव्य में उत्पाद व्यय नहीं हैं, किन्तु पर्याय की दृष्टि से हैं ।
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सत्स्वरूप है । अर्थात्, द्रव्य
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